सहारनपुर: रोजा इस्लाम की अहम इबादतों में एक है. इन्हीं इबादतों में सफर भी शामिल है. सफर के दौरान रोजेदार को रोजा छोड़ने की इजाजत दी हुई है, लेकिन सफर के वापसी के बाद रोजे की कजा लाजमी है. इस्लाम में यह भी शर्त है कि सफर का एक निश्चित फासला हो, जिसे शरीयत सफर मानती हो, तभी यह सुविधा हासिल होगी. इस्लाम में सफर की तय सीमा 48 मील रखी गई है.
पुस्तक किफायतुल मुफ्ती के मुताबिक सफर की हालत में नमाज आधी हो जाती है, लेकिन रोजा पूरा छोड़ा जा सकता है. पुस्तक मआरिफुल कुरान के अनुसार सफर के दौरान रोजेदार अगर किसी जगह पर 15 दिन से कम ठहरना है तो यह दिन सफर में शुमार होंगे, लेकिन सफर 15 दिन या उससे ज्यादा की है तो वह शख्स मुसाफिर नहीं होता, बल्कि मुकीम बन गया. इसलिए उसके लिए रोजे रखना जरूरी है.