रायबरेली:नवरात्र के आगमन से पहले से ही पूरे देश में हर्षोल्लास का माहौल है. 29 सितंबर से नवरात्रि शुरू हो रही है. इस दौरान हर किसी के मन में मां के विराट स्वरूप की अनोखी छटा बसती है. वैसे तो मां के भक्तों की कोई कमी नहीं है पर कुछ भक्त ऐसे भी हैं जो उनके आगमन की तैयारी पूरे साल भर करते हैं. इन्हीं भक्तों की मेहनत का नतीजा रहता है कि मानो सच में मां प्रत्यक्ष रूप से उन स्थानों पर विराजमान हो पाती हैं.
प्रतिमा को अंतिम रूप देने में लगे कारीगर.
दुर्गा पूजा में विशेष तौर पर पंडालों में मां की प्रतिमा स्थापित कर पूजन और अर्चना की जाती है. मां की मूर्तियों को बनाने के विषय में कई विशेष तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं. कोई कहता है कि मूर्तियों को बनाने के लिए वैश्यालय से माटी लाई जाती है, वहीं कोई कहता है कि दुर्गा की मूर्तियों की आंखें कारीगर हमेशा रात में ही बनाते हैं. वहीं कारीगर मूर्तियों को अंतिम रूप देने में लगे हुए हैं.
ईटीवी भारत ने मां की प्रतिमा को साकार रूप देने वाले कलाकारों से की बातचीत-
कारीगरों का कहा है कि कठिन नियमों को पालन करते हुए मां के प्रतिमा को साकार रूप देते हैं. ऐसी कोई देवी प्रतिमा नहीं है जिसकी आंखों में तेज न दिखाई देता हो. मूर्ति के भावों के हिसाब से आंखों को डिजाइन किया जाता है. कहते हैं जो भाव मां के चेहरे पर दिखाना है, वही भाव मूर्तिकार को अपने मन में भी साधना होता है.
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12 वर्ष की उम्र से मां की मूर्तियों को बनाने वाले बंगाल के शिल्पकार विशु कहते हैं कि मां की आकृति को बनाने के दौरान विशेष तौर पर आंखों के तेज का ध्यान रखा जाता है. हर वर्ष करीब चार महीने का समय दुर्गा पूजा से जुड़ी तैयारियों में लगाना पड़ता है. इस दौरान बंगाल से करीब 12 से 15 लोगों की टीम के साथ वह दुर्गा पूजा से 3 महीने पहले ही रायबरेली आकर इस कार्य का श्रीगणेश करते हैं.
वेश्यालय की माटी का करते हैं प्रयोग-
प्राचीन मान्यता के अनुसार देवी दुर्गा की प्रतिमा के निर्माण में वेश्यालय की माटी का प्रयोग किया जाता है. हालांकि रायबरेली में इसकी उपलब्धता न होने के कारण वे बंगाल से इसे लाकर यहां की मिट्टी में मिलाने की बात कहते है. हर वर्ष करीब 150 मूर्तियों को साकार रूप देते हैं. इनमें मां की आकृति के अलावा अन्य देवी-देवताओं समेत शेर और दानवों के रूप भी शामिल होते हैं. इन मूर्तियों की कीमत 1500 से लेकर 7000 तक होती है.