रायबरेली :'मैं लिखते लिखते रोया था,मैं भारी मन से गाता हूं,जो हिम शिखरों का फूल बने मैं उनको फूल चढ़ाता हूं' यह पंक्तियां रायबरेली में 7 जनवरी को 1921 में जलियांवाला बाग से भी बड़े नरसंहार पर बिल्कुल सटीक बैठती है.रायबरेली में इस नरसंहार को 'मुंशीगंज गोलीकांड' के नाम से भी जाना जाता है. जंगे आजादी की अमर निशानी मुंशीगंज के शहीद स्मारक में शहीदों को याद किया जाता.
रायबरेली शहर के एक छोर पर स्थित मुंशीगंज कस्बा सई नदी के तट पर है. 5 जनवरी 1921 को किसान तत्कालीन अंग्रेज शासकों के अत्याचारों से तंग आकर और अमोल शर्मा, बाबा जानकी दास के नेतृत्व में एक जनसभा कर रहे थे. दूर-दूर के गांव के किसान भी सभा में भाग लेने के लिए आए थे. इस जनसभा को सफल बनाने के लिए तालुकेदार तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर एजी शेरिफ से मिलकर दोनों नेताओं को गिरफ्तार करवा कर लखनऊ जेल भिजवा दिया. गिरफ्तारी के अगले दिन रायबरेली में लोगों के बीच तेजी से यह खबर फैल गई कि लखनऊ के जेल प्रशासन द्वारा दोनों नेताओं की जेल में हत्या करवा दी गई है. इसके चलते 7 जनवरी 1921 को रायबरेली मुंशीगंज नदी के एक छोर पर अपने नेताओं के समर्थन में एक विशाल जनसमूह एकत्रित होने लगा. किसानों के भारी विरोध को देखते हुए नदी किनारे भारी पुलिस बल तैनात कर दिया.
अंग्रेजों ने जवाहरलाल नेहरू को कर दिया नजरबंद
स्थिति की गंभीरता को भांपते हुए जवाहरलाल नेहरू ने भी रायबरेली का रुख किया पर पहुंचने से पहले ही उन्हें रोक दिया गया. जानकार बताते हैं कि अंग्रेज पहले से ही इस गोलीकांड की योजना बना चुके थे पर नेहरू को सिर्फ इसलिए नजरबंद किया गया था कि कहीं नेहरू को गोली लग गए तो मामला बड़ा रुप ले लेगा. अंग्रेजी शासन ने सभा में मौजूद किसानों पर पुलिस बलों द्वारा गोलियों की बौछार करा दी गई जिसके बाद सई नदी की धारा किसानों के खून से लाल हो गई. 750 से ज्यादा किसान इस नरसंहार में मारे गए थे.