प्रयागराज: देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त करवाने की जंग में तमाम लोग शामिल हुए थे. आजादी की लड़ाई में शामिल होने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में से कुछ ही लोग अब इस दुनिया में बचे है. उन्हीं में से एक प्रयागराज के कमलाकांत तिवारी हैं. जो अब 103 साल की उम्र पार कर चुके हैं. 1919 में जन्में कमलाकांत का शरीर भले ही आज उनका साथ कम दे रहा है. लेकिन, आजादी की लड़ाई और उससे जुड़े आंदोलनों की चर्चा आज भी वो पूरे जोश कर साथ करते हैं. हालांकि, उम्र के इस पड़ाव में अब उनकी स्मरण शक्ति कमजोर हो गई है.
103 साल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कमलाकांत तिवारी से जानिए आजादी की कहानियां देश को अंग्रेजों के चंगुल से आजाद करवाने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में लाखों लोग शामिल हुए थे. संगम नगरी में 103 साल के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी जीवित हैं. वो बताते हैं कि आजादी की लड़ाई के दौरान अंग्रेजी हुकूमत और उनकी फौज भारतीय आंदोलन कारियों को कैसे प्रताड़ित करती थी. अंग्रेज सैनिक न सिर्फ मारपीट करके थे बल्कि उन्हें जख्मी भी करते थे. साथ ही उनके जख्मों पर नमक और मिर्च लगा देते थे. इससे परेशान होकर स्वतंत्रता सेनानी खुद को आजादी के आंदोलन से अलग कर लें. कमलाकांत तिवारी अपने बेटे के साथ. प्रयागराज शहर से करीब 60 किलोमीटर दूर मांडा विकासखंड में जन्मे कमलाकांत तिवारी इस वक्त 103 साल की उम्र पार कर चुके हैं. 7 मई 1919 को जन्मे कमलाकांत तिवारी को महज 13 साल की उम्र में ही जेल जाना पड़ा था. छोटी सी उम्र में आजादी की जंग में शामिल होने और 6 महीने जेल की सजा काटने के बाद कमलाकांत की गिनती उन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों में होने लगी. जो अंग्रेजो को चकमा देने में महारत हासिल कर चुके थे. अपनी फुर्ती और तेजी के लिए कमलाकांत इलाके में मशहूर हो गए थे. उनके बारे में बताया जाता है कि कई बार अंग्रेजी सेना के पीछा करने के बावजूद वह उनकी पकड़ में नहीं आये थे. कमलाकांत तिवारी चांदी के प्रतीक चिह्न के साथ. आजादी की 75वीं वर्षगांठ देखेंगे:आज देश भर में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है. इस बात की जानकारी कमलाकांत को भी है. इसपर उनका कहना है कि ये भगवान की कृपा ही है कि इस दिन को देखने के लिए अभी जिंदा बचे हुए हैं. ये भगवान का आशीर्वाद है जो में आजादी की 75वीं वर्षगांठ देख पा रहा हूं.
कमलाकांत तिवारी के साथ परिजन.
ट्रेन रोकने के आरोप में भेजे गए थे जेल:कमलाकांत तिवारी जब 13 साल के थे उसी समय से वो स्वतंत्रता सेनानियों के साथ रहने लगे थे. उसी दौरान 1932 में मेजा के दिघिया इलाके में दिल्ली से हावड़ा जाने वाले ट्रैक को तोड़ने के साथ ट्रेन रोकने और उसे जलाने के प्रयास में कमालाकांत अपने साथियों के साथ पकड़े गए थे. ट्रैक तोड़ने के दौरान ही किसी की मुखबिरी की वजह से वहां पर अंग्रेज सैनिक पहुँच गए और सभी को खदेड़ लिया. उसी वक्त पहली और आखिरी बार कमलाकांत अंग्रेजों के चंगुल में फंसे थे. उन्हें कोड़े मारने के साथ ही 6 महीने जेल और 80 रुपये जुर्माने की सजा सुनायी गयी थी. 6 महीने की सजा काटने के बाद कमलाकांत ने देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने का बीड़ा उठा लिया था. इसके बाद वो घर से बाहर ही रहते थे. 1947 में आजादी मिलने के बाद ही वो सुकून से अपने घर पर रहने पहुंचे.
अंग्रेज पिटाई करके अधमरा कर कांटे गड़ाते थे शरीर में:कमलाकांत ने बताया कि उस वक्त अंग्रेज जब क्रांतिकारियों को पकड़ते थे तो तब तक बेरहमी से पिटाई करते थे जब तक कि लोग बेहोश न हो जाएं. यही नहीं होश में आने पर घाव पर नमक मिर्च तक लगाकर प्रताड़ित करते थे. इसके अलावा शरीर में कांटे और लकड़ी का फांस लगाकर दर्द देते थे. अंग्रेजों ने जब कमला कांत को पकड़ा था तो उन्हें भी बेरहमी से पीटा गया था.
सम्मान में मिला ताम्रपत्र. उस दौरान अंग्रेजों ने उनसे कहा कि छोड़ दो आंदोलन कारियों का साथ और भूल जाओ आजादी को. इसके बाद कमलाकांत ने कहा कि जान चली जाए तो भी आजादी की राह नहीं छोड़ेंगे. इसके बाद उन्हें तब तक पीटा गया था जब तक वो बेसुध नहीं हुए थे और इसी बात से नाराज होकर अंग्रेज सैनिकों ने छोटी उम्र होने के बावजूद कमलाकांत के ऊपर जुल्म ढाया और जेल भेज दिया था.
हेमवती नंदन बहुगुणा द्वारा दिया गया चांदी का प्रतीक चिंह
मेजा से कोतवाली तक निकाला था जुलूस:कमलाकांत ने बताया कि 15 अगस्त 1947 का दिन उनके जीवन का सबसे अमूल्य दिन था. उनका कहना है कि आज तक उनकी जिंदगी का सबसे ज्यादा खुशियों वाला दिन 15 अगस्त 1947 का दिन था. क्योंकि उस दिन उनका मुल्क उन्हें अंग्रेजो से उन्हें वापस मिल गया था. आजादी के दिन तमाम स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के साथ मिलकर कमला कांत तिवारी ने मेजा से लेकर शहर कोतवाली तक जुलूस निकाला था.
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इस दौरान रास्ते भर उनके जुलूस में लोग जुड़ते गए और कोतवाली से आनंद भवन तक जश्न का माहौल दिख रहा था. हर घर परिवार में खुशियां मनायी जा रही थी क्योंकि लोगों को अंग्रेजों के जुल्म व अत्याचार से मुक्ति मिल गई थी. उनका कहना है कि उस दिन से बड़ा दिन उनके और इस देश के जीवन में दोबारा नहीं आएगा.
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ताम्रपत्र के साथ इलाके के लोगों का कहना है कि वयोवृद्ध हो चुके स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का आशीर्वाद लेने व उनका सम्मान करने के लिए आज भी लोग 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन उनके घर जाते हैं. क्षेत्रीय पत्रकार संजय शुक्ला ने आजादी के इस नायक की कहानी जनता तक पहुंचाने के लिए ईटीवी भारत का धन्यवाद दिया.