प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि किसी बंदी को जमानत पर रिहा करने के लिए उस पर प्रतिभूति (जमानत राशि) तय करते समय विचारण न्यायालय बंदी की सामाजिक आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखें. जमानत मिलने के बावजूद गरीबी के कारण जमानत राशि जमा न कर पाने पर जेल से रिहा नहीं होने वाले कैदियों की बड़ी संख्या को देखते हुए हाईकोर्ट ने इस संबंध में विस्तृत निर्देश जारी किए हैं. अरविंद सिंह की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश न्यायमूर्ति अजय भनोट ने दिया.
कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि यदि कोई बंदी अदालत द्वारा तय की गई जमानत नहीं दे पाता है तो वह कम करने के लिए प्रार्थना पत्र दे तथा अपने सामाजिक आर्थिक स्थिति का अनिवार्य रूप से उस प्रार्थना पत्र में हवाला दे. कोर्ट ने कहा है कि यह जिला विधिक सेवा प्राधिकरण की अनिवार्य जिम्मेदारी है कि उस बंदी की स्थिति की जांच करें, जिसे जमानत मिली है. लेकिन जमानत मिलने के 7 दिनों बाद तक जेल से बाहर नहीं आ पाया है. यदि बंदी जमानत राशि का इंतजाम नहीं कर पाता है तो उसे तत्काल इसे कम करने का आवेदन देने की सलाह दी जाए और इस कार्य में उसका सहयोग किया जाए.
कोर्ट ने विचारण न्यायालयों को आदेश दिया है कि जब बंदी ऐसा प्रार्थना पत्र दे तो ट्रायल कोर्ट इस आदेश के क्रम में उसकी जांच करें और जमानत राशि कम करने के संबंध में सकारण आदेश पारित करें. हाईकोर्ट ने कहा कि हर विचारण न्यायालय की जिम्मेदारी है कि कैदी की आर्थिक सामाजिक स्थिति और उसके भागने की संभावना की जांच करें और उसके मुताबिक जमानत राशि तय करें. राज्य सरकार व अन्य एजेंसियां कोर्ट को तत्काल मांगी गई जानकारी उपलब्ध कराएं. यदि कैदी दूसरे राज्य से हैं और स्थानीय जमानत नहीं दे सकता है तो उसके गृह जिले की जमानत अदालत स्वीकार करें. कोर्ट ने कहा है कि बंदी या उसका वकील जमानत प्रार्थना पत्र में उसकी सामाजिक आर्थिक स्थिति का हवाला दें. इससे जमानत संबंधी मामले को सुलझाने में मदद मिलेगी.