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ईद-उल-अजहा पर क्यों दी जाती है कुर्बानी, जानिए इतिहास

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Published : Aug 1, 2020, 4:54 AM IST

इस्लाम धर्म में ईद-उल-अजहा का खासा महत्व है. दुनिया भर के मुसलमान हर वर्ष दो ईद बड़े धूमधाम से मनाते हैं. इस दिन कुर्बानी देने का दस्तूर भी है. आइए जानते हैं कि कब और कैसे शुरू हुआ कुर्बानी का सिलसिला...

ईद उल अजहा पर क्यों दी जाती है कुर्बानी.
ईद उल अजहा पर क्यों दी जाती है कुर्बानी.

लखनऊ: इस्लाम धर्म में मुसलमानों के दूसरे सबसे बड़े पर्व के रूप में ईद-उल-अजहा मानी जाती है. दुनिया भर के मुसलमान हर वर्ष दो ईद बड़े धूमधाम से मनाते हैं. ईद-उल-फित्र यानी मीठी ईद और ईद-उल-अजहा यानी बकरीद. बकरीद का पर्व भी ईद की तरह सुबह नमाज अदा करने के साथ ही शुरू होता है. ईद-उल-अजहा पर लोग मस्जिदों और ईदगाह में नमाज अदा करते हैं, इसके बाद घर पर कुर्बानी देते हैं, जो तीन दिनों तक चलती है. हजरत इब्राहीम के दौर से दुनिया में कुर्बानी का दौर शुरू हुआ, जो बदस्तूर आज तक जारी है.

जानकारी देते मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली.

कहां से शुरू हुआ कुर्बानी का सिलसिला
इस्लाम धर्म में बकरीद के पर्व का खास महत्व है. मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली बताते हैं कि हजारों साल पहले अल्लाह ने हजरत इब्राहीम को यह हुक्म दिया कि मेरी राह में अपनी सबसे प्यारी और अजीज चीज को कुर्बान कर दो.

इस पर हजरत इब्राहीम अपने इकलौते बेटे हजत इस्माइल को अल्लाह की राह में कुर्बान करने के लिए राजी गए और अपने बेटे की गर्दन पर छुरी रखकर जिबह करने चले तो इतने में अल्लाह ने हजरत इस्माइल की जगह जन्नत से दुम्बा भेज दिया. अल्लाह ने बाप-बेटे की इस कुर्बानी को कुबूल किया और उस दिन से रहती दुनिया तक मुसलमानों को कुर्बानी के लिए अल्लाह ने लाजमी करार कर दिया.

मौलाना ने कहा कि इस बकरे की कुर्बानी का मकसद यह है कि हम छुरी चलाने से पहले अपनी सब नाजायज ख्वाइशों पर छुरी चलाये और उन्हें त्याग दें. झूठ, पीठ पीछे बुराई, रिश्वत का लेन-देन और शराब पीना या जुआं खेलना समेत सभी बुरे काम अल्लाह और पैगम्बर मोहम्मद साहब की नाराजगी का सबब बनते हैं. इसलिए उनका त्याग और बलिदान करना कुर्बानी का असल मकसद है. मौलाना फरंगी महली ने कहा कि इस वर्ष भी मेरी सबसे अपील है कि बकरे की कुर्बानी देने से पहले अपनी किसी नाजायज ख्वाइश की कुर्बानी जरूर करें.

किन लोगों पर वाजिब है कुर्बानी करना
मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना खालिद रशीद फरंगी महली कहते हैं कि कुर्बानी देना हर उस शख्स पर वाजिब है जो साहिबे हैसियत हो. यानी साढ़े 52 तोला चांदी या उसके बराबर नकद रकम जिस शख्स के पास मौजूद हो, उसको कुर्बानी देना वाजिब है. मौलाना ने कहा कि अगर किसी शख्स के पास अपने घरेलू जरूरत की चीजों के अलावा साढ़े 52 तोला चांदी की रकम के बराबर या उससे ज्यादा जमीन जायदाद या अन्य चीजें हैं तो उसपर भी कुर्बानी वाजिब है.

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