लखनऊ : प्रदेश में सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी (BJP and Samajwadi Party) में आजकल जुबानी जंग मर्यादा की सभी सीमाएं लांघ रही हैं. स्थिति यह है कि भाजपा नेताओं को समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता (National Spokesperson of Samajwadi Party) व एक और नेता पर एफआईआर दर्ज करानी पड़ी, हालांकि ऐसा नहीं है कि किसी एक दल के नेता ने ही भाषाई संयम तोड़ा हो. दोनों ही दलों के नेताओं ने एक दूसरे पर ऐसी छींटाकशी की कि उनका अपना दामन ही मैला हो गया. एक वक्त था जब पक्ष-विपक्ष के नेता मौका पड़ने पर दलीय मतभेद त्याग कर एक दूसरे के साथ बैठते थे और जरूरत पड़ने पर मंच भी साझा करते थे. कहना मुश्किल है कि यह कटुता और राजनीति का गिरता स्तर कहां जाकर रुकेगा. हां इतना तो जरूर है कि ऐसी अनर्गल और व्यक्तिगत टिप्पणियां करने वाले नेता जनता के बीच में अपनी साख खोते जा रहे हैं.
एक वक्त था जब एक दूसरे की नीतियों के धुर विरोधी दो पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेई (Former Prime Minister Late Atal Bihari Vajpayee) और चंद्रशेखर संसद में बहस के दौरान एक दूसरे की कटु आलोचना करते देखे जा सकते थे, तो वहीं बाहर वह एक दूसरे के साथ मंच भी साझा करते थे और दोनों के मन में एक दूसरे के लिए बहुत ही आदर भाव भी था. चंद्रशेखर खुले मंच पर सबके सामने अटल बिहारी वाजपेई को अपना गुरु मानते थे. यह एक उदाहरण है. जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लालकृष्ण आडवाणी सहित देश को ऐसे अनगिनत नेता मिले हैं, जिन्होंने परस्पर विरोधियों का भी आदर और सम्मान किस तरह करना है, इसकी मिसाल पेश की है, हालांकि आज के दौर को देखकर लगता है कि हमारे नेताओं ने अतीत से कुछ भी नहीं सीखा. अपने दलों के शीर्ष नेताओं से भी उन्होंने कुछ भी सीखने का प्रयास नहीं किया.
भाषाई संयम खोते राजनीतिक दल और नेताओं की गिरती साख - लालकृष्ण आडवाणी
प्रदेश में आजकल राजनीतिक पार्टियां में खूब जुबानी जंग हो रही है. बीते दिनों नेता सोशल मीडिया पर एक दूसरे पर विवादित टिप्पणी करते देखे गए. जिसके बाद भाजपा नेताओं ने समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता (National Spokesperson of Samajwadi Party) के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है. व्यक्तिगत टिप्पणियां करने वाले नेता जनता के बीच में अपनी साख खोते जा रहे हैं. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...
राजनीति के इस गिरते स्तर के लिए वरिष्ठ नेताओं को ही अधिक जिम्मेदार माना जाना चाहिए. आखिर बड़े नेता अपने प्रवक्ताओं और अन्य नेताओं से असंयमित और असंसदीय भाषा के इस्तेमाल पर सवाल-जवाब क्यों नहीं करते? क्यों उन्हें कुछ भी बोलने की छूट दी जाती है? पार्टी नेतृत्व गरिमा पूर्ण भाषा के उपयोग के लिए अपने नेताओं को निर्देशित तो कर ही सकता है. ऐसे नेता पार्टी में आगे कैसे बढ़ते हैं, जिन्हें सामान्य शिष्टाचार का विवेक नहीं है. समस्या यह हो गई है कि राजनीतिक दलों में शीर्ष स्तर के नेता भी मर्यादा तोड़ते रहते हैं. संभवत इसी कारण वह अपने कनिष्ठों से अच्छा आचरण अपनाने के लिए नहीं कह पाते होंगे.
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