लखनऊ: ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में उर्दू, अरबी या फारसी पढ़ना अब अनिवार्य नहीं होगा. विश्वविद्यालय प्रशासन ने इस अनिवार्यता को समाप्त करने का फैसला लिया है. नई व्यवस्था के तहत, छात्र विश्वविद्यालय में उपलब्ध कोई भी भारतीय, एशियाई या यूरोपीय भाषा में अपनी इच्छा के अनुसार पढ़ाई कर सकेंगे.
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती भाषा विश्वविद्यालय में उर्दू, अरबी या फारसी पढ़ना अब अनिवार्य नहीं विश्वविद्यालय प्रशासन का दावा है कि इससे विश्वविद्यालय में सभी भाषाओं को आगे बढ़ाने और छात्रों को सीखने का मौका मिलेगा. हालांकि, विश्वविद्यालय प्रशासन की तरफ से किए जा रहे इन बदलावों को लेकर एक विशेष वर्ग को आपत्ति भी है. अभी तक इस विश्वविद्यालय में स्नातक स्तर पर छात्रों के लिए उर्दू, अरबी या फारसी में से किसी भी एक भाषा को पढ़ना अनिवार्य होता था. इसे सिलेबस में एलिमेंट्री विषय के रूप में जोड़ा गया था.
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जानकारों की माने तो एक विशेष वर्ग के बाहर से आने वाले छात्रों को इसमें काफी समस्या का सामना करना पड़ता था. परीक्षा पास करने के लिए इन तीनों भाषाओं में से किसी एक में पास होना अनिवार्य था. ऐसे में छात्र बैक पेपर आने के कारण परेशान भटकते रहते थे.
अब मिलेंगे ज्यादा विकल्प
कुलपति प्रोफेसर विनय कुमार पाठक ने बताया कि अब छात्रों को पढ़ने के लिए भाषाओं के ज्यादा विकल्प मिलेंगे. उन्होंने कहा कि विभिन्न भारतीय भाषाओं के साथ विदेशी भाषाओं को भी जोड़ रहे हैं. इस अनिवार्यता को समाप्त कर विकल्प खोल दिए जाएंगे.
लोगो विवाद पर बोले कुलपति
भाषा विश्वविद्यालय के लोगो और लेटर पैड में बीते दिनों कुछ बदलाव किए गए. दोनों जगह से उर्दू भाषा को हटाकर अंग्रेजी और हिंदी को रखा गया है. इसको लेकर पूर्व कुलपति प्रोफेसर माहरुख मिर्जा ने राज्यपाल के समक्ष आपत्ति भी दर्ज कराई है. हालांकि कुलपति प्रोफेसर विनय कुमार पाठक ने इस आपत्ति को गलत ठहराया है. उनका कहना है कि भाषा विश्वविद्यालय में सभी भाषाओं को पूरा सम्मान दिया जा रहा है. दायरा बढ़ाए जाने से सभी को लाभ होगा.