लखनऊ : समाजवादी पार्टी में इन दिनों अजब राजनीति देखने को मिल रही है. पार्टी संस्थापकों में शामिल रहे पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव शिवपाल यादव एक बार फिर हाशिए पर दिखाई दे रहे हैं, जबकि सपा के विरोध की राजनीति से उभरकर निकले बसपा और भाजपा की राजनीति के बाद सपा में पहुंचे राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य हिंदू आस्था का मखौल उड़ाने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते. यह तब हो रहा है, जबकि कई सपा नेता उनके विरोध में हैं और पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव इसे स्वामी प्रसाद मौर्य की व्यक्तिगत राय बता कर पल्ला झाड़ लेते हैं. हालांकि वह ऐसे बयान देने के लिए स्वामी प्रसाद मौर्य को रोकते नहीं हैं. स्वाभाविक है कि पार्टी अध्यक्ष की मंशा के खिलाफ काम करने वाला पार्टी में कैसे रह सकता है.
शिवपाल को करने पड़े तमाम समझौते :मुलायम सिंह यादव के परिवार में झगड़े के बाद सपा से अलग होकर अपनी पार्टी बनाने वाले शिवपाल सिंह यादव ने आखिरकार सवा साल पहले अपनी पार्टी का सपा में विलय कराया और घर वापसी कर ली. इसके लिए उन्हें तमाम समझौते करने पड़े. अपनी बनाई पार्टी के तमाम नेताओं और कार्यकर्ताओं का साथ छोड़ना पड़ा. कुछ निकट सहयोगी नाराज भी हुए, जिनमें पूर्व मंत्री शारदा प्रसाद शुक्ला प्रमुख थे. शिवपाल जब सपा में लौटे तो लोगों को लगा कि परिवार के सभी गिले-शिकवे दूर हो गए हैं और शिवपाल सिंह यादव को पार्टी में वही रुतबा और सम्मान मिलेगा, जो उनके भाई मुलायम सिंह यादव के समय में हासिल था. हालांकि यह लोगों की बड़ी भूल थी. शिवपाल सिंह यादव को पार्टी और परिवार में वह रुतबा हासिल नहीं हुआ, शायद जिसकी वह उम्मीद करके गए थे. हां, भाजपा छोड़ सपा में आए स्वामी प्रसाद मौर्य का कद और पद अखिलेश यादव ने दोनों बढ़ा दिए. अखिलेश ने उन्हें शिवपाल के समान राष्ट्रीय महासचिव का पद दिया. यही नहीं रामचरित मानस जैसे पवित्र हिंदू धर्मग्रंथ और हिंदू देवी-देवताओं के अपमान पर भी अखिलेश मौन हैं. विश्लेषक इसे एक तरह से अखिलेश यादव की मौन स्वीकृति ही मानते हैं. एक ओर स्वामी प्रसाद मौर्य नित नए विवादित बयान देकर सुर्खियां बटोर रहे हैं. वहीं शिवपाल यादव अपनी उपेक्षा के चलते उदासीन हो गए हैं.
शिवपाल यादव और स्वामी प्रसाद मौर्य के बीच विसंगतियां : इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक डॉ. दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं कि शिवपाल यादव और स्वामी प्रसाद मौर्य सपा के राष्ट्रीय महासचिव हैं. दोनों के बीच दिलचस्प विसंगतियां हैं. शिवपाल यादव सपा के संस्थापक सदस्य हैं. शिवपाल के सहयोग और संघर्ष दोनों की मुलायम सिंह सदैव सराहना करते थे. दूसरी तरफ स्वामी प्रसाद मौर्य हमेशा मुलायम सिंह और उनकी पार्टी पर हमला बोलते रहे. उनके विरुद्ध अमर्यादित बयान देते रहे. जब सपा-बसपा गठबंधन की सरकार बनी, तब भी मुलायम सिंह को उचित सम्मान नहीं मिला. बाद में बड़ी कटुता के साथ उस गठबंधन सरकार का पतन हुआ था. पार्टी पर नियंत्रण पाने के बाद अखिलेश यादव ने फिर बसपा और कांग्रेस से चुनावी गठबंधन के प्रयोग किए थे, लेकिन दोनों प्रयोग वैमनश्य के साथ टूट गए. वर्तमान स्थिति में ऐसा लग रहा है जैसे स्वामी प्रसाद मौर्य को लेकर अलग तरह का प्रयोग चल रहा है. इस बार स्वामी प्रसाद सपा के भीतर रह कर अपना काम कर रहे हैं. कुछ ही बयानों ने उन्हें पार्टी का सर्वाधिक चर्चित नेता बना दिया है. इस चर्चा में कई बार राष्ट्रीय अध्यक्ष भी पीछे रह जाते हैं, जबकि क्षेत्रीय या परिवार आधारित पार्टियों में यह रिवाज नहीं होता है. इसमें मुखिया ही चर्चा में रहते हैं. अन्य पदाधिकारी औपचारिकता का निर्वाह मात्र करते हैं. स्वामी प्रसाद इस औपचारिकता से बहुत आगे निकल गए हैं. कई बार लगता है, जैसे वह अपनी मर्जी से पार्टी का एजेंडा तय कर रहे हैं.