लखनऊ :उत्तर प्रदेश में इन दिनों निकाय चुनाव की धूम है. सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के अलावा मुख्य रूप से कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी चुनाव मैदान में हैं. हालांकि जिस तरह से इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी अपना प्रचार कर रही है, उसके मुकाबले समाजवादी पार्टी समेत कोई भी दल कहीं भी दिखाई नहीं देता. भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश स्तर के सभी प्रमुख नेता लगातार जनसभाएं कर रहे हैं. केंद्रीय मंत्री भी अपने-अपने क्षेत्रों में सक्रिय हैं. वहीं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव ने महज तीन-चार जनसभाएं ही की हैं. बसपा का हाल तो और भी बुरा है. मायावती का चुनाव प्रचार अभियान ट्विटर तक सीमित है. कांग्रेस की हालत तो इससे भी बुरी है. राज्य के प्रभारी प्रियंका गांधी के पास उत्तर प्रदेश आने के लिए वक्त नहीं है. अध्यक्ष और क्षेत्रीय अध्यक्ष प्रेस कॉन्फ्रेंस और प्रेस विज्ञप्तियों के माध्यम से जो कर पा रहे हैं, वह प्रयास जारी हैं. ऐसे में कोई दल भाजपा के मुकाबले प्रचार अभियान में दिखाई नहीं देता.
भाजपा की चुनावी रणनीति से पस्त हुए विपक्ष दल. इस बार निकाय चुनाव महज सिंबल की लड़ाई बनकर रह गया है. भाजपा के एग्रेसिव चुनाव अभियान के आगे सभी दल जैसे नतमस्तक हो गए हैं. हाल यह हो गया है कि सत्ताधारी दल के प्रत्याशियों को जिस तरह आपके पार्टी के बड़े नेताओं और मंत्रियों का साथ प्रचार अभियान में मिल रहा है, उसकी अपेक्षा विपक्षी पार्टियों के प्रत्याशियों को उनके दलों के मुखिया और बड़े नेताओं का प्रचार में उस तरह का सहयोग नहीं मिल पा रहा है. प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अलग-अलग जिलों में प्रतिदिन तीन से चार समय कर रहे हैं. उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और दूसरे डिप्टी सीएम बृजेश पाठक भी एक दिन में कई कई सभाएं करते हैं. अन्य मंत्रियों और विधायकों को उनके जिलों और क्षेत्रों की जिम्मेदारी सौंपी गई है. यदि संगठन की बात करें तो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष चौधरी भूपेंद्र सिंह सहित अन्य बड़े नेता भी प्रतिदिन जनसभाओं को संबोधित कर रहे हैं. इसके मुकाबले यदि मुख्य विपक्षी पार्टी की बात करें तो सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अब तक तीन-चार जनसभाएं ही की हैं. पार्टी के अन्य बड़े नेताओं की भी सक्रियता भाजपा के मुकाबले बहुत कम है. बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती पहले भी चुनाव में कम ही सक्रियता दिखाती रही हैं. इस बार भी उनका कोई भी चुनावी दौरा जनसभा अभी नहीं हुई है. स्वाभाविक है कि इससे पार्टी के कार्यकर्ताओं और चुनाव लड़ रहे नेताओं का मनोबल कमजोर होता है. कांग्रेस भी इस चुनाव में शायद खुद को मुकाबले से बाहर मान रही है. यही कारण है कि पार्टी में बहुत उत्साह नहीं है. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में पराजय के बाद पार्टी की उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी ने प्रदेश का कोई दौरा नहीं किया है. स्वाभाविक है अपने शीर्ष नेता की उपेक्षा से निचले नेताओं का मनोबल भी टूटता है. वैसे भी प्रदेश में कांग्रेस की स्थिति अपने सबसे बुरे दौर में है.
भाजपा की चुनावी रणनीति से पस्त हुए विपक्ष दल. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव यह आरोप लगाते रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी चुनाव में सरकारी संसाधनों और पैसे का बेजा इस्तेमाल करती है. सपा के यह आरोप अपनी जगह हैं, पर इसमें कोई दो राय नहीं इस सत्ता में होने का लाभ तो मिलता ही है. यह भी सही है कि भारतीय जनता पार्टी अन्य दलों की अपेक्षा अपने चुनावी अभियान पर पैसा बेतहाशा खर्च करती है. इन सब विषयों से अलग यदि बात चुनावी मुद्दों की करें, तो यहां भी विपक्ष मात खा जाता है. भारतीय जनता पार्टी सुशासन, अपराधियों के खिलाफ सख्त रवैया और विकास को अपना मुद्दा बनाती है. पिछले दिनों प्रयागराज की घटना के बाद अतीक के बेटे व अन्य आरोपियों के एनकाउंटर हुए उसने यह संदेश देने का काम किया योगी सरकार अपराधियों को बख्शने वाली नहीं है. पुलिस हिरासत में अतीक अहमद और उसके भाई की हत्या को भी विपक्ष भुना नहीं पाया. उल्टे भाजपा को ही इसका लाभ मिलता दिखाई दे रहा है. विपक्ष के पास मुद्दों का अभाव है. ऐसा नहीं है कि भाजपा सरकार में सब कुछ अच्छा ही हो रहा हो, लेकिन खामियां उजागर करने का काम तो विपक्ष का होता है, जो इसमें असफल है.
भाजपा की चुनावी रणनीति से पस्त हुए विपक्ष दल. राजनीतिक विश्लेषक डॉ. आलोक कुमार कहते हैं भारतीय जनता पार्टी की नीति रही है कि वह हर छोटे-बड़े चुनाव को पूरी गंभीरता से लेती है और प्रचार-प्रसार में कोई कसर नहीं छोड़ती. यह चुनाव भी इसकी नजीर है. दूसरी बात भाजपा की चुनावी तैयारी और रणनीति भी अन्य दलों के मुकाबले बेहतर है. उसे केंद्र और राज्य में सत्ता होने का लाभ भी मिलता है. बसपा और कांग्रेस अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही हैं. इन पार्टियों के नेताओं में अभी वह भूख भी नहीं दिखाई दे रही है, जिसके लिए राजनीतिक दल सड़कों पर उतरकर संघर्ष करते हैं. समाजवादी पार्टी से लोगों को बड़ी उम्मीद थी, लेकिन अखिलेश यादव के रवैया ने सभी को निराश किया है. वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में वह जिस तरह के फैसले करते रहे वह पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हुए. कई सीटों पर प्रत्याशी चयन के कारण ही सपा को पराजय का मुंह देखना पड़ा. अखिलेश यादव ने पुरानी गलतियों से भी शायद कुछ नहीं सीखा. यदि पार्टी के बड़े नेताओं के अनुभव का लाभ आप नहीं लेना चाहते तो इसमें नुकसान पार्टी का भी है और आपका भी. समाजवादी पार्टी ने अब तक एक मजबूत विपक्ष की भूमिका नहीं निभाई है. वह भाजपा के खिलाफ ऐसे मुद्दे ढूंढने में नाकाम रही है, जिससे सरकार की नाकामी उजागर हो. जब तक विपक्षी दल ऐसा नहीं कर पाएंगे भाजपा की डगर कठिन नहीं होगी.