लखनऊ: 7 अप्रैल यानी आज बेगम हजरत महल की पुण्यतिथि मनाई जाती है. यह दिन अवध की राजधानी लखनऊ के लिए बेहद खास है, क्योंकि इसी दिन 1879 को बेगम का नेपाल में देहांत हुआ था. जब भी 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में शामिल वीर महिला सेनानियों की बात होती है तो उनमें बेगम हजरत महल का नाम शीर्ष पर ही रहता है.
अंग्रेजों से ली थी कड़ी टक्कर
बेगम हजरत महल का नाम भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में असीम शौर्य और साहस के साथ अंग्रेजों से टक्कर लेने के लिए दर्ज है. जब अवध में नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने गद्दी से बेदखल कर दिया तो उनकी पत्नी बेगम हजरत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी से मुकाबला किया. 1857 में बेगम हजरत महल ने सरफद्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और सबसे बढ़कर मम्मू ख़ान जैसे अपने विश्वासपात्र अनुयाइयों के साथ मिलकर सबसे लंबे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला किया. अपनी असीम शौर्य और साहस की बदौलत बेगम हजरत महल ने चिनहट और दिलकुशा की लड़ाई में अंग्रेजो की सेना को हराया. इसके बाद 5 जून, 1857 को उन्होंने अपने 11 वर्षीय बेटे बिरजिस कद्र को मुगल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया. जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया तो बेगम अपने बेटे को लेकर नेपाल चली गईं. जहां 7 अप्रैल 1879 को उन्होंने अंतिम सांस ली.
एक नतर्की से कैसे बनी बेगम हजरत महल
हजरत का जन्म फैजाबाद में 1920 में हुआ था. वह एक नर्तकी थीं, जिसे नवाब वाजिदअली अपनी बेगमों की सेवा के लिए लाए थे, लेकिन फिर वह हजरत की सुंदरता और बुद्धिमत्ता के कायल हो गये. हजरत महल ने अपनी योग्यता से धीरे-धीरे सब बेगमों में अग्रणी स्थान प्राप्त कर लिया.
पुत्रजन्म के बाद नवाब ने दिया ‘महल’ का सम्मान
वाजिदअली शाह संगीत, काव्य, नृत्य और शतरंज का प्रेमी थे. बेगम हजरत महल के बारे में नवाब जफर मीर अब्दुल्लाह बताते हैं कि वह एक बेहद साधारण परिवार की थीं, लेकिन अपनी सुंदरता और बुद्धिमत्ता के चलते वाजिद अली खान ने उन्हें बेहद खास स्थान दिया और फिर उनकी मोहब्बत में वह डूब गए. वह विपत्ति के समय हजरत महल से ही सलाह लेते थे और फिर जब उन्हें पुत्र पैदा हुआ जो उन्होंने बेगम को ‘महल’ का सम्मान दिया.
हजरत महल ने नहीं मानी अंग्रेजों से हार1856 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों ने अवध राज्य को हड़पकर बेगम के पति नवाब वाजिद अली शाह को कोलकाता भेज दिया. इसके बाद बेगम हजरत महल ने अवध की बागडोर को 7 जुलाई 1857 को अपने हाथ में ले लिया और लखनऊ पर उनका कब्जा हो गया. उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कद्र को गद्दी पर बिठाकर अंग्रेजी सेना का मुकाबला किया. वह हाथी पर सवार होकर अपने सैनिकों के साथ दिन-रात युद्ध करती रहीं, लेकिन लखनऊ की जंग में वे पराजित हो गईं. इसके बाद वह अवध के देहात इलाके में चली गईं. बेगम हजऱत महल ने जब तक संभव हो सका, अपनी पूरी ताकत से अंग्रेजों का मुकाबला किया. उन्होंने अंग्रेजों के सामने कभी हार नहीं मानी और जीवन के आखिरी क्षण तक उन्होंने अंग्रेजों की अधीनता नहीं स्वीकार की.
इमामबाड़ा में स्थित मस्जिद. अंग्रेजों के प्रस्ताव को ठुकरायाबेगम हजरत महल जब नेपाल में शरण लेकर अंग्रेजो के खिलाफ अपनी लड़ाई को जारी रखी हुई थी तो उनके पास अंग्रेज़ों ने समझौते के तीन प्रस्ताव भेजे. यहां तक कि अंग्रेजों ने यह पेशकश भी रखी कि वे ब्रिटिश अधीनता में उनके पति का राजपाट लौटा देंगे, लेकिन बेग़म इसके लिए राजी नहीं हुईं. वे एकछत्र अधिकार से कम कुछ भी नहीं चाहती थीं. उन्हें या तो सबकुछ चाहिए था, या कुछ भी नहीं.
नेपाल में हजरत महल ने ली आखरी सांसअंग्रेजों से हार के बाद बेगम हजरत महल बहराइच के रास्ते अपने बेटे के साथ नेपाल चली गयीं. जहां नेपाल के राजा जंग बहादुर ने उन्हें शरण दी. 59 वर्ष की उम्र में 7 अप्रैल 1879 को बेगम हजरत महल का काठमांडू में इंतकाल हो गया. उन्हें यहां के जामा मस्जिद मैदान में दफनाया गया.