लखनऊ: उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनावों को लेकर सभी राजनीतिक दलों ने बिसात बिछनी शुरू कर दी है. सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी भी आगामी चुनावों में जीत के लिए नया साथी तलाश रही है, तो छोटे दल भी गठबंधन को लेकर गुणा-भाग में लग गए हैं. समाजवादी पार्टी से अलग होकर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाने वाले पूर्व मंत्री और सपा मुखिया अखिलेश यादव के चाचा शिवपाल यादव भी बैकडोर से भाजपा से गठबंधन की संभावनाएं तलाश रहे हैं. शिवपाल को लगता है कि समाजवादी पार्टी से गठबंधन के बाद भी उन्हें खोया सम्मान नहीं मिलेगा. दूसरी बात यह है कि बिखरे हुए विपक्ष के सामने भाजपा ताकतवर पार्टी दिखाई दे रही है. ऐसे में यदि भाजपा को भावी चुनावों में सफलता मिली तो उन्हें सत्ता का स्वाद फिर से चखने को मिल सकता है. हालांकि इस 'बैकडोर' वार्ता पर कोई भी दल कुछ भी कहने को तैयार नहीं है.
गठबंधन की संभावनाओं पर हो रही बात
भारतीय जनता पार्टी और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन की संभावनाओं पर बातचीत जारी है. हालांकि कि दोनों ही पार्टियों के नेता इसे नकार रहे हैं. सूत्रों का कहना है कि ठोस नतीजे पर पहुंचने से पहले कोई भी दल इस पर कुछ भी नहीं बोलेगा. माना जाता है कि समाजवादी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके शिवपाल यादव को संगठन में महारत हासिल है और यादव मतदाताओं के साथ ही वर्ग विशेष के मतदाओं में उनकी अच्छी पैठ है. समाजवादी पार्टी से अलग होने के बाद उन्होंने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का संगठन विधान सभा स्तर तक बनाने में बड़ी मेहनत की है. प्रदेश के कुल करीब आठ प्रतिशत यादव मतदाताओं में उनकी अच्छी पैठ है. ऐसे में भाजपा चाहेगी कि परंपरागत रूप से सपा में जाने वाले इस वोट बैंक का कुछ हिस्सा उन्हें मिले, तो यह पार्टी के लिए निर्णायक होगा. मजबूत स्थिति में दिख रही भारतीय जनता पार्टी से दोस्ती कर शिवपाल यादव को भी सत्ता का स्वाद दोबारा चखने को मिल सकता है.
सपा-प्रसपा में क्यों नहीं बन रही बात
हाल ही में समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के लिए जसवंतनगर सीट छोड़ने की बात कही थी, लेकिन शिवपाल यादव की महत्वाकांक्षा कहीं अधिक है. वह ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारना चाहते हैं. अखिलेश यादव के बयान से साफ है कि वह शिवपाल यादव की पार्टी को ज्यादा महत्व नहीं देते और अपने चाचा के लिए सिर्फ एक सीट छोड़ना चाहते हैं. अखिलेश यादव और शिवपाल के परिवारों से करीबी रखने वाले कुछ नेता बताते हैं कि सार्वजनिक मंचों पर भले ही अखिलेश और शिवपाल साथ दिखाई दिए हों, लेकिन मतभेद के बाद अब तक दोनों नेताओं ने एक साथ बैठकर राजनीतिक चर्चा नहीं की है. निकट भविष्य में इसकी संभावना भी नजर नहीं आती. साफ है कि जब दिल ही नहीं मिल रहे, तो दलों में मेल कैसे संभव है. राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि अब अखिलेश कभी नहीं चाहेंगे कि शिवपाल अपना खोया रुतबा वापस पाएं. ऐसे में शिवपाल दूसरा मजबूत विकल्प तलाश रहे हैं.
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भाजपा-प्रसपा में क्यों हो सकता है मेल
प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के विस्तार को लेकर पिछले पांच साल से खासी मेहनत कर रहे शिवपाल यादव जानते हैं कि सत्ता के नजदीक रहकर पार्टी चलाना ज्यादा आसान है. विश्लेषकों का कहना है कि यदि भारतीय जनता पार्टी 2017 में सुहेलदेव समाज पार्टी से गठबंधन कर आठ सीटें दे सकती है, तो शिवपाल की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी को क्यों नहीं. ऐसे में प्रसपा को भाजपा से गठबंधन का ज्यादा लाभ मिलेगा. यदि भाजपा की दोबारा सरकार बनी तो उसे सत्ता में भागीदारी भी मिलेगी. स्वाभाविक है कि सत्ता के करीब रहकर अपनी पार्टी का विस्तार भी शिवपाल के लिए आसान होगा.