उत्तर प्रदेश

uttar pradesh

ETV Bharat / state

150 साल पुराने एक्ट पर काम कर रही पुलिस, नहीं लागू हो रहीं पुलिस आयोग की सिफारिशें

यूपी में अपराध और अपराधियों पर शिकंजा कसने में पुलिस कई बार फेल साबित हो चुकी है. कई मामलों में पुलिस अपराध में ही लिप्त मिली. ऐसे सभी मामलों में अधिकारी इसे पुलिस एक्ट 1861 को जिम्मेदार मानते हैं. आइए जानते हैं कि आखिर क्या है पुलिस एक्ट 1861 और इसे बदलने के लिए कब और क्या पहल हुई.

Etv Bharat
Etv Bharat

By

Published : Jun 22, 2023, 11:01 PM IST

लखनऊ : उत्तर प्रदेश की पुलिस का स्लोगन है "सुरक्षा आपकी संकल्प हमारा", लेकिन बीते कई वर्षों में यह स्लोगन चरितार्थ होता नहीं दिखा है. राज्य में कई बार पुलिस अपराधी बनी तो कई बार राजनेताओं से पिट कर पीड़ित भी हुई. इन दोनों ही मामलों के दोषी पूर्व पुलिस अधिकारी उस पुलिस एक्ट को मानते हैं जो 1861 से चला आ रहा है. जिन्हें अंग्रेजों द्वारा जनता को दबाने के लिए बनाया गया था. हालांकि आजादी के बाद एक्ट को बदलने की कोशिश हुई, लेकिन इसे अमली जामा नहीं पहनाया जा सका.

पुलिस की मनमर्जी.
क्रिमिनल जस्टिस कमीशन की वकालत.

पुलिस अपराधी बन कर रही लूट और हत्याएं

देश में दर्ज होने वाले मुकदमों में लगभग 49 प्रतिशत मुकदमे पुलिस के खिलाफ होते हैं. बीते दिनों उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में एक व्यापारी से पुलिस ने लूट कर ली. वाराणसी में गुजरात के व्यापारी के ऑफिस में लूट हुई और पुलिस ने लुटेरों का साथ दिया. राजधानी लखनऊ में पुलिस की प्रताड़ना से एक ऐसे युवक ने आत्महत्या कर ली जो आईएएस बनने का सपना देख रहा था. देशभर में बीते पांच वर्षों में 523 मौतें पुलिस हिरासत में हुई. जिसकी यूपी में संख्या 41 हैं. यह कुछ चंद घटनाएं और आंकड़े महज उदाहरण हैं, पुलिस के उस रूप के जिसे बदलना मौजूदा समय में नामुमकिन सा लग रहा है. खासकर उत्तर प्रदेश में कई बार पुलिस सुधार के लिए कोशिश की गई, लेकिन कामयाबी नहीं मिली. दरअसल, इन सुधार प्रक्रिया के बीच आड़े आता है पुलिस एक्ट 1861. जिसे ब्रिटिश शासनकाल में बनाया गया था.

पुलिस के खिलाफ कड़े प्रावधान जरूरी.
पुलिस की मनमर्जी.





आयोग ने 1861 पुलिस एक्ट को बदलने को कहा

हालांकि ऐसा नहीं है कि पुलिस अत्याचार करती रही और किसी भी सरकार ने उन अत्याचारों को अनदेखा किया. अंग्रेजों के शासनकाल से चले आ रहे पुलिस अधिनियम में बदलाव करने और पुलिस सुधार के लिए तत्कालीन भारत सरकार ने 15 नवंबर 1977 में राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया था. इस आयोग के अध्यक्ष धरमवीर थे. राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने 1979 और 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्ट तैयार करके सरकार को सौंपी थी. इस रिपोर्ट में पुलिस के खिलाफ एक स्वतंत्र एजेंसी के पास शिकायत दर्ज करने की शक्ति देने, राजनेताओं का पुलिस अधिकारी की नियुक्ति में दखल को रोकना, पुलिस प्रमुख की नियुक्ति के तरीके को बदलना, पुलिस अधिकारियों और कर्मियों के कार्य प्रणाली को जांचने के लिए एक क्रिमिनल जस्टिस कमीशन बनाने समेत कई सिफारिशें की गई थीं, जिन्हे अब तक नजर अंदाज किया गया है. आयोग ने पुलिस अधिनियम 1861 को बदल कर नया अधिनियम लागू करने की मजबूत सिफारिश की थी.

पुलिस के खिलाफ कड़े प्रावधान जरूरी.
पुलिस के खिलाफ कड़े प्रावधान जरूरी.
पुलिस के खिलाफ जांच करने के लिए स्वतंत्र एजेंसीराष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में माना था कि पुलिस अधिकारियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने के लिए कोई स्वतंत्र एजेंसी नहीं है. यदि पुलिस अधिकारी उसकी शिकायत दर्ज नहीं करते हैं या उसके साथ दुर्व्यवहार करते हैं तो पीड़ित के पास कोई भी अन्य रास्ता नहीं रहता है, सिवाए मानवाधिकार आयोग के, लेकिन यह भी किसी शिकायतकर्ता की मदद करने के लिए बहुत अधिक शक्तिशाली एजेंसी नहीं हैं. दरअसल मानवाधिकार के पास कार्रवाई करने की शक्ति नहीं है. मानवाधिकार आयोग महज सरकार से सिफारिश कर सकता है. यह सरकार पर निर्भर करता है कि कार्रवाई करनी है या अनदेखा करना है.
पुलिस के खिलाफ कड़े प्रावधान जरूरी.
पुलिस के खिलाफ कड़े प्रावधान जरूरी.
आरोपी पुलिसकर्मियों के दंड पर बदलाव जरूरी पुलिस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि भारत में ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब किसी राज्य के पुलिस अधिकारी की ज्यादती के खिलाफ शिकायत दर्ज न होती हो. आयोग ने बताया था कि पुलिस अधिकारी अपने व्यवहार के लिए बदनाम हैं. काम में देरी करने के लिए बीमारी का बहाना, शिकायतकर्ता की मदद करने के बजाय उसके साथ दुर्व्यवहार करना, पैसे कमाने के लिए आरोपी के साथ मिलकर गलत गतिविधियों में शामिल होते हैं.
पुलिस की मनमर्जी.





पुलिस की नियुक्ति में राजनेताओं का हस्तक्षेप

राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उस वक्त माना था कि पुलिस की निगरानी राज्य सरकार यानी राजनेताओं के हाथों में सौंप दी गई है. पुलिस प्रमुख यानी डीजीपी की नियुक्ति मुख्यमंत्री की इच्छा पर की जाती है. ऐसे में यदि डीजीपी सत्ताधारी राजनेताओं का पक्ष नहीं लेता है तो उसे बिना कारण बताए हटा दिया जाता है. जिस कारण राजनेताओं को खुश करने के लिए डीजीपी उन्हीं के अनुसार नीति अपनाते हैं और उन्हीं के आदेशों पर चलते हैं. अत: पुलिस अधिकारी केवल राजनेताओं के सेवक बने रहते हैं, जनता के नहीं.

पुलिस के खिलाफ कड़े प्रावधान जरूरी.



ऐसे में आयोग ने सिफारिश की थी कि डीजीपी का कार्यकाल निश्चित किया जाना चाहिए, ताकि एक ईमानदार अधिकारी स्थानांतरण या पद से हटाए जाने के डर के बिना काम कर सकें. पुलिस अधिकारियों की गतिविधियों पर नजर रखने के लिए राज्य सुरक्षा आयोग नामक एक वैधानिक निकाय बनाया जाना चाहिए. हालांकि पूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह की रिपोर्ट के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने डीजीपी के चयन के लिए यूपीएससीसी को जिम्मेदारी दे दी थी.



यह भी पढ़ें : रेप का विरोध करने पर दो किशोरों ने छह साल की बच्ची को मार डाला, तेजाब से जलाया चेहरा

ABOUT THE AUTHOR

...view details