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मन में पनपे घाव को अब तक नहीं मिला सहारा, सालों पहले हुआ था हादसा

योगी सरकार के तमाम प्रयासों के बावजूद सड़क दुर्घटनाओं में होने वाली मौतों को कम करने में कामयाबी नहीं मिल पा रही है. हादसों में शिकार लोगों के शरीर के घाव तो भर जाते हैं, लेकिन आर्थिक और मानसिक चोट को भरने में समय लगता है.

स्पेशल रिपोर्ट.
स्पेशल रिपोर्ट.

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Published : Dec 20, 2020, 10:38 PM IST

लखनऊ:उत्तर प्रदेश में लगातार सड़क दुर्घटनाओं की संख्या में इजाफा हो रहा है. सड़क हादसे में गंभीर रूप से घायल होने वाले लोगों को महंगे इलाज के चलते आर्थिक संकट झेलना पड़ता है. वहीं, घायलों को इलाज के लिए अस्पताल दर अस्पताल भटकना भी पड़ता है. ईटीवी भारत की टीम ने जब सड़क हादसों में घायल होने वाले लोगों से बात की तो उनका दर्द छलक उठा. उन्होंने कहा कि शरीर के घाव तो भर गए, लेकिन हादसे के बाद जो आर्थिक और मानसिक चोट लगी है उसके घाव आज भी ताजा हैं. उन्होंने बताया कि हादसे के बाद रोजगार भी गया, लाखों रुपये खर्च भी हुआ. यहां तक कि मकान बेचने की नौबत आ गई है.

स्पेशल रिपोर्ट.

संपत्ति बेचने की आई नौबत
राजाजीपुरम में रहने वाले सीपी सिंह बताते हैं कि उनका 2009 में एक्सीडेंट हुआ था. देर रात वे पत्नी के साथ घर आ रहे थे. उस दौरान शराब पी रखे लोगों ने उन्हें पीछे से धक्का मार दिया और मौके से फरार हो गए. सीपी सिंह सड़क पर ही पड़े रहे. इस दौरान उन्हें देखने वाला कोई नहीं था.

कर्ज लेकर कराया इलाज
सीपी सिंह ने बताया कि इलाज में उन्हें काफी आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा. उनकी सारी कमाई बंद हो गई. जितना भी डिपॉजिट था. सब खत्म हो गया. कर्ज लेकर इलाज कराना पड़ा. यहां तक कि संपत्ति बेचने की नौबत आ गई. हादसे के बाद 5 साल तक बेड पर पड़ा रहा. उन्होंने बताया कि अगर उनका मानसिक संतुलन ठीक न रहता तो वे कबका मर चुके होते. सीपी सिंह ने बताया कि हादसा उनकी गलती से नहीं हुआ था. इसलिए वे मामले को कोर्ट लेकर गए थे, लेकिन उन्हें संतोषजनक मुआवजा नहीं मिला.

आलमबाग के रहने वाले गुरमीत सिंह बताते हैं कि करीब 2 साल पहले उनका एक्सीडेंट हुआ था. इसमें उनका दाहिना पैर कट गया. हादसे के बाद उन्हें ट्रॉमा सेंटर ले जाया गया, जहां वे 48 घंटे रहे. उन्होंने बताया कि पहले तो डॉक्टर ने ड्रिल मशीन न होने का बहाना बताया. उसके बाद उनकी रिपोर्ट गलत बता दी. हेपेटाइटिस बी तक बता दिया गया.

गुरमीत ने बताया कि धीरे-धीरे उनके पैर से बदबू आने लगी. इसके बाद उनके पिता ने प्राइवेट अस्पताल में भर्ती करवाया. जहां इलाज में 11 लाख रुपये खर्च हो गए. गुरमीत ने बताया कि शारीरिक और आर्थिक झटके से वे आज तक उभर नहीं सके हैं.

पैसे को लेकर नहीं रुकेगा इलाज
केजीएमयू के पल्मोनरी विभाग के विभागाध्यक्ष डॉ. वेद बताते हैं कि सड़क हादसों में अधिकतर देखा गया है कि घायलों को आसपास के अस्पताल या ट्रॉमा सेंटर जब लाया जाता है तो वे सब लावारिस हालत में आते हैं. घायलों को या तो पुलिस पहुंचाती है या वहां से गुजरने वाले राहगीर. ऐसे में लोग ज्यादा पैसा लेकर साथ में नहीं चलते हैं. हेड इंजरी के मामले में घायलों को होश तक नहीं रहता है. ऐसे में जगह-जगह जो सरकारी संस्थान हैं, वे पैसे को लेकर किसी मरीज का इलाज नहीं रोकते.

बढ़ाई गई सहायता राशि
सेफ्टी एक्सपर्ट एहतेशाम बताते हैं कि इस पर सरकार ने काफी काम किया है. लोगों को जागरूक होने की जरूरत है. दुर्घटना के बाद जो आधा घंटा और एक घंटा होता है. उसे गोल्डन आवर कहा जाता है. उस दौरान घायल को अगर चिकित्सा सही मिल जाए तो कई चीजों से उसे राहत मिल सकती है. अभी भी लोग इस चीज को समझते नहीं हैं और खड़े होकर तमाशाबीन बन जाते हैं. कहीं न कहीं देर से पुलिस को, एंबुलेंस को सूचना मिलने के चलते घायल की हालत और गंभीर हो जाती है. इसके चलते घायल को बचाने या उसके इलाज में दिक्कत आ जाती है. इसमें जो नया मोटर व्हीकल एक्ट लागू हुआ है इसमें सहायता राशि को बढ़ाया गया है. कागजी कार्रवाई देर से होने से इसमें दिक्कत आ रही है.

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