लखनऊ:सूबे के सियासी समर में अपनी पार्टी के विस्तार और क्षेत्रीय अस्तित्व को राष्ट्रीय मुकाम तक पहुंचने को आतुर दिख रहे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल-मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी की नजर मुस्लिम समुदाय पर है. ओवैसी यहां मुस्लिम समुदाय को आकर्षित करने को हर वो उपाय कर रहे हैं, जिसकी जरूरत है, लेकिन इस समुदाय में भी दो फाड़ की स्थिति है.
वहीं, सूबे के मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में करने को वे योगी-मोदी के अलावा गैर-भाजपा दलों के रवैये पर भी सवाल दाग रहे हैं. इतना ही नहीं उन्होंने पूर्वांचल और पश्चिम यूपी के मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में अधिक जोर लगाया है.
साथ ही यहां की सियासी जमीन को उपजाऊ बनाने को उन्होंने 55 साल पुराने उस फॉर्मूले को आजमाना शुरू किया है, जिसके जनक डॉ. जलील फरीदी को माना जाता है.
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दरअसल, हैदराबाद से सांसद और एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी उत्तर प्रदेश की सियासत में फिलहाल नए किरदार हैं और उन्हें लगता है कि वे मुस्लिमों की भावनाओं को जगा यहां अपनी सियासी जमीन बनाने में कामयाब हो जाएंगे.
इसके अलावा उन्होंने सूबे की सौ मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों में प्रत्याशी देने का निर्णय लिया है. इतना ही नहीं अभी से ही उन्होंने जिलों का दौरा भी शुरू कर दिया है, ताकि माहौल मार्केटिंग के जरिए समुदाय विशेष के मतदाताओं के बीच पैठ बनाई जा सके.
जानकारों की मानें तो ओवैसी पूर्वांचल, सेंट्रल यूपी और पश्चिमी यूपी की मुस्लिम बहुल विधानसभा क्षेत्रों पर खास तौर पर निगाहें लगाए हुए हैं और यहां महज दो मुद्दों को उठा समीकरण बदलने की कोशिश कर रहे हैं.
अकसर अपनी रैलियों में वे मुस्लिम विधायकों की कमी संख्या में इजाफा और सूबे की सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी का मुद्दा उठा मुस्लिम मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाने की कोशिश कर रहे हैं.
हालांकि, मुस्लिमों की सियासी नुमाइंदगी और सत्ता में भागीदारी के मुद्दे पहले भी उठते रहे हैं. लेकिन ओवैसी ने पुराने प्रयोग में अपने जोशीले भाषण से जान फूंकने की कोशिश की है.
गौर हो कि प्रदेश में मुसलमानों की कुल आबादी 20 फीसद के करीब है, जो 145 से 146 विधानसभा क्षेत्रों में प्रभावी हैं और इसी प्रभाव को देखते हुए ओवैसी यहां मुस्लिमों के विकल्प के रूप में खुद को पेश कर रहे हैं.
हालांकि, सूबे में मुस्लिम सियासत का इतिहास बहुत पुराना है. आजादी से पूर्व व बाद में भी भिन्न-भिन्न स्वरूपों में मुस्लिम सियासत की तस्वीरें देखने को मिलते रही हैं. और तो और सूबे में मुस्लिमों की रहनुमाई का दावा करने वाली सियासी पार्टी की एक लंबी फेहरिस्त है.
वहीं, आजादी के बाद अपने सियासी रहनुमाई को लेकर मुस्लिमों में मायूसी थी, जिससे उबरने में उन्हें करीब 15 साल का वक्त लग गया.
UP में मुस्लिम सियासत का इतिहास
उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों को मायूसी से निकालने और उनमें सियासी चेतना जगाने को मौलाना अली मियां की पहल पर मुस्लिम समुदाय के सियासी, धार्मिक और गैर-सियासी लोगों की बैठक बुलाई गई और साल 1964 में सामाजिक संगठन की शक्ल में मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत को जमीनी रूप में पेश किया गया.
पहले तो मशावरत के तले जलसे और सामाजिक उत्थान व चेतना के लिए कार्यक्रमों का आयोजन किया गया, ताकि मुस्लिम समुदाय का हौसला बढ़ा उन्हें सक्रिय किया जा सके. वहीं, अंबेडकरवादी विचारधारा से प्रभावित डॉ. अब्दुल जलील फरीदी भी आगे चलकर मशावरत से जुड़े और वे राजधानी लखनऊ में एक नामचीन टीबी के चिकित्सक थे.
वो गरीबों के हितैषी और दलित-मुस्लिमों को सियासी रूप से एकजुट करने के मिशन पर काम करते रहे. इसके साथ ही वे कांग्रेस के धुर विरोधी माने जाते थे. यही कारण है कि आगे चलकर वे सक्रिय सियासत में बतौर मुस्लिम चेहरे के रूप में उभर कर सामने आए और उन्होंने ही सूबे में सबसे पहले मुस्लिम सियासत को स्थापित करने की कवायद की थी.