राजनीतिक विश्लेषक डॉ. दिलीप अग्निहोत्री लखनऊ : प्रदेश में बहुप्रतीक्षित निकाय चुनाव अब जल्द ही होने वाले हैं. इन चुनावों के लिए सभी राजनीतिक दल अपनी-अपनी तैयारी कर रहे हैं, लेकिन सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी की तैयारी अन्य विपक्षी दलों से बेहतर दिखाई दे रही है. खास तौर पर मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी भी कहीं न कहीं चुनावी तैयारियों में भारतीय जनता पार्टी से पीछे दिखाई दे रही है. कांग्रेस पार्टी की स्थिति तो सबसे विकट है. पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और क्षेत्रीय अध्यक्षों की घोषणा तो हो गई, लेकिन कई माह से उत्तर प्रदेश प्रभारी प्रियंका गांधी खुद प्रदेश नहीं आई हैं, वहीं बहुजन समाज पार्टी हाशिए पर है. पार्टी ने अपना नया प्रदेश अध्यक्ष तो बना दिया, लेकिन संगठन में अब वह ताब नहीं रही जो कभी हुआ करती थी. अन्य छोटे दल भी अपनी-अपनी रणभेरी जरूर बजाएंगे, लेकिन इन चुनावों में वह कहां खड़े होंगे या दूर की कौड़ी है. इतना तो तय है कि छोटे दलों को कोई बड़ा आधार नहीं मिल पाएगा.
विधानसभा चुनाव के बाद यह पहला बड़ा चुनाव प्रदेश में होने जा रहा है. निकाय चुनाव को लोकसभा का सेमीफाइनल भी माना जा रहा है. इसमें कोई दो राय नहीं कि इन चुनावों में बढ़त बनाने वाले राजनीतिक दल को लोकसभा चुनाव में मनोवैज्ञानिक रूप से बढ़त हासिल होगी. साथ ही वह अपने चुनाव प्रचार में इस बात को लेकर भी जाएंगे कि जनता ने उन पर ज्यादा विश्वास जताया है. भारतीय जनता पार्टी ने कुछ माह पूर्व चौधरी भूपेंद्र सिंह को अपना प्रदेश अध्यक्ष बनाया था. कुछ दिन पूर्व ही पार्टी में प्रदेश संगठन के अन्य पदाधिकारियों के नाम भी घोषित कर दिए हैं. इनमें पार्टी के क्षेत्रीय अध्यक्ष शामिल हैं. पार्टी ने घोषणा की है कि वह निकाय चुनाव के बाद ही जिला अध्यक्षों की घोषणा करेगी. पार्टी का पूर्व का अनुभव रहा है कि ऐन चुनाव के मौके पर जिला अध्यक्ष आज के नामों की घोषणा पर गुटबाजी सामने आती है, जिसका नुकसान पार्टी को ही भुगतना पड़ता है. भारतीय जनता पार्टी के बारे में कहा जाता है कि वह महीने के तीसों दिन और 24 घंटे चुनाव की तैयारी मोड में रहती है. भाजपा के अनुषांगिक संगठन भी चुनाव में अहम भूमिका निभाते हैं. यही कारण है कि इस चुनाव में भाजपा मजबूत स्थिति में दिखाई दे रही है. इससे पहले हुए दो उपचुनाव में भी भाजपा का पलड़ा भारी रहा था. ऐसे में भाजपा की स्थिति मजबूत है और उसे पराजित कर पाना विपक्ष के लिए चुनौती भरा है.
वहीं विपक्षी दल समाजवादी पार्टी की बात करें तो सपा ने भी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष और संगठन के कुछ अन्य पदाधिकारियों के नाम घोषित किए हैं. हालांकि अभी कहा जा रहा है कि तमाम पदों पर और भी नाम घोषित किए जाने बाकी हैं. चुनावी साल में समाजवादी पार्टी अपनी पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन राज्य से बाहर पश्चिम बंगाल में कराती है. स्वाभाविक है कि उसे इन चुनावों की खास फिक्र नहीं है. यदि पार्टी इन चुनाव को गंभीरता से ले रही होती तो निश्चित रूप से वह महत्वपूर्ण राष्ट्रीय अधिवेशन प्रदेश में ही कराती. अपने राज्य में होने के कारण उसे अधिक मीडिया कवरेज मिलता और जनता में भी अच्छा संदेश जाता. हालांकि ऐसा हो नहीं सका. चूंकि समाजवादी पार्टी में सभी निर्णय राष्ट्रीय अध्यक्ष पर केंद्रित होते हैं इसलिए चुनावी तैयारियों में अभी पार्टी का उतना जोर नहीं दिखा है. शायद अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद चुनाव निकट देखते हुए सपा अपनी तैयारी तेज करे. सपा के सहयोगी रहे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओमप्रकाश राजभर ने गठबंधन से किनारा कर लिया है. ऐसे में समाजवादी पार्टी के सामने वह नई चुनौती बनेंगे, जबकि भाजपा ने अपने गठबंधन के सहयोगियों को सहेज कर रखा है. अपना दल और निषाद पार्टी के साथ भाजपा का अच्छा तालमेल है. स्वाभाविक है इसका फायदा चुनाव में भाजपा को मिलेगा. गठबंधन के मोर्चे पर भी सपा फेल साबित हुई है.
यदि कांग्रेस पार्टी की बात करें तो पार्टी ने अपने अध्यक्ष और क्षेत्रीय अध्यक्ष जरूर घोषित कर दिए, लेकिन प्रदेश का संगठन अभी बनना बाकी हैं. पार्टी की राज्य प्रभारी प्रियंका गांधी कई महीने से प्रदेश नहीं आई हैं. उनका जनता से नाता न के बराबर है. बूथ स्तर पर पार्टी का संगठन बिल्कुल खत्म है. यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही है. कमोबेश यही स्थिति बहुजन समाज पार्टी की भी है. बसपा प्रमुख मायावती अब उस तरह से सक्रिय नहीं हैं, जिसके लिए वह कभी जानी जाती थीं. मायावती ने अपने नए प्रदेश अध्यक्ष की घोषणा जरूर कर दी है, लेकिन प्रदेश स्तर पर पूरा संगठन सुस्त पड़ा है. पार्टी के राजनीतिक कार्यक्रम लगभग शून्य ही हो गए हैं. धरना-प्रदर्शन और सरकार का विरोध बसपा के लिए जैसे अतीत की बात हो गई हो. यही कारण है कि प्रदेश में चार बार मुख्यमंत्री बनीं मायावती की पार्टी आज विधानसभा में महज एक सदस्य वाला दल है. ऐसे में बसपा सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी या मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी के लिए किसी तरह की चुनौती बनेगी इसकी कल्पना नहीं की जा सकती.
इस संबंध में राजनीतिक विश्लेषक डॉ. दिलीप अग्निहोत्री कहते हैं कि 'ओबीसी आरक्षण व्यवस्था के साथ निकाय चुनाव कराने की सरकार की योजना सफल रही और इसका लाभ भी भाजपा को मिलता दिख रहा है. कारण यह है कि विपक्ष ने इसको मुद्दा बनाने का प्रयास किया था, लेकिन न्याय के निर्णय के बाद यह मुद्दा विपक्ष के हाथ से निकल गया. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले निकाय चुनाव जो उत्तर प्रदेश के हो रहे हैं, मुझे लगता है कि इसमें विपक्ष की जो इसमें तैयारी थी वह किसी भी दृष्टि से वह मतदाताओं को प्रभावित करने वाली नहीं रही है. दूसरी तरफ जो सत्ता पक्ष की तैयारी है वह निरंतर उसकी सक्रियता के कारण, सरकार की सक्रियता के कारण, संगठन की सक्रियता के कारण वह प्रभावी रूप से आगे बढ़ रही है और सरकार अपनी बात मतदाताओं तक पहुंचाने में बहुत सफल हो रही है. अभी कुछ दिन पहले योगी सरकार ने अपने 6 वर्ष पूरे किए हैं. हम सब जानते हैं कि एक तरह का इतिहास बना है. सबसे अधिक समय तक रहने वाले मुख्यमंत्री वह बन चुके हैं, तो इस अवसर पर उन्होंने जो अपना रिपोर्ट कार्ड जारी किया वह एक बहुत बढ़त दिखाने वाला है. मतदाताओं तक एक संदेश सुशासन वह पहुंचाने में सफल रहे. संगठन की जो बात है वह निरंतर उनकी सक्रियता भी है, संगठन की नई टीम भी तैयार हो गई है. विपक्ष की अगर बात करें, टीम की अगर बात करें तो कांग्रेसी यथास्थिति में है. उसकी चुनाव की दृष्टि से ना कोई योजना है, ना कोई हलचल है यह मुकाबले से लगभग बाहर है. बिल्कुल वही स्थिति बसपा की है. बसपा की भी इस तरीके की कोई सक्रियता नहीं है. कोई हलचल नहीं है. मायावती जी ट्वीट कर देती हैं. जो मुख्य विपक्षी दल है समाजवादी पार्टी. उसके अगर केवल संगठन की बात करें तो संगठन में जिस तरह से स्वामी प्रसाद मौर्य ने रामचरितमानस पर एक विवादित और अमर्यादित बयान दिया और उसके फौरन बाद उनको राष्ट्रीय महासचिव पद पर नियुक्त कर दिया गया तो यह विषय तो समाप्त हो गया कि जिसमें सपा के एक बड़े नेता ने कहा था कि यह स्वामी प्रसाद मौर्य का व्यक्तिगत विचार है तो यह बात भी खत्म हो गई. जिस तरीके से योगी आदित्यनाथ जी ने विधानसभा में इस पूरे प्रकरण के सफाई दी, स्पष्टीकरण दिया जितना प्रभावशाली ढंग से उन्होंने प्रतिरोध किया है, यह बात एक साधारण बात नहीं समझनी चाहिए. यह जनमानस के अंदर एक बहुत बड़ा मुद्दा बनने वाला वाली है यह भी बात है लगभग तय लग रही है और यह नुकसान भी होगा. मायावती ने कहा कि वह कर्नाटक विधानसभा के लिए लड़ेंगी. अखिलेश यादव कभी पश्चिम बंगाल जाते हैं तो कभी तेलंगाना जाते हैं, लेकिन उत्तर प्रदेश के लिए किसकी क्या योजना है?.'
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