लखनऊः हर गुजरता साल कुछ दर्द देता है तो कुछ जख्मों पर मरहम लगा जाता है. साल 2019 भी कुछ ऐसा ही रहा. इस साल कुछ नए जख्म मिले तो कुछ बरसों पुराने जख्मों को हमेशा के लिए भर दिया गया. ऐसा ही एक जख्म जो मुस्लिम समुदाय की महिलाओं को बरसों से दर्द दे रहा था, उस पर सरकार ने मरहम लगाने का काम किया. तीन तलाक मुस्लिम महिलाओं के लिए अभिशाप की तरह बरसों से उनका पीछा कर रहा था. साल 1980 में शाहबानो ने जब इसके लिए आवाज उठाई तब किसे पता था कि यह लड़ाई कितनी लंबी चलेगी.
शाहबानो ने छेड़ी तीन तलाक के खिलाफ जंग
शाहबानो के जज्बे ने देश की कई मुस्लिम महिलाओं को हिम्मत दी कि वह तलाक के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकें. एक सर्वे के अनुसार, मध्यमवर्गीय परिवारों में तीन तलाक के ज्यादा मामले देखने को मिलते हैं. कोई शौहर फोन कर तलाक दे देता है तो कोई मैसेज पर. वहीं कई ऐसे भी थे जो राह चलते तलाक, तलाक, तलाक कह देते. फिर महिला का क्या, वह न्याय की तलाश में दर-दर भटकने को मजबूर हो जाती.
सुप्रीम कोर्ट ने ठहराया था अमान्य
1986 में सामने आए शाहबानो और 2002 में सामने आए शमीम आरा के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक को भारतीय संविधान और इस्लाम की मूल भावना के खिलाफ बताते हुए अमान्य कर दिया था. फिर भी गाहे-बगाहे तीन तलाक के मामले मुस्लिम महिलाओं के जीवन में नासूर बन कर चुभते रहे हैं.