हैदराबाद:सियासत में न तो कोई परमानेंट दोस्त होता है और न ही दुश्मन. यहां तक कि जो आज साथ खड़ा है, वो चुनाव बाद भी साथ खड़ा होगा कि नहीं, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है. यानी सियासत में सब संभव है. नजीर के तौर पर महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन को ले सकते हैं, जो चुनाव तो साथ मिलकर लड़े, लेकिन परिणाम के बाद दोनों मिलकर सरकार न बना सके. बात अगर उत्तर प्रदेश की सियासत की करें तो जिस मुलायम सिंह यादव ने कभी अजित सिंह को सूबे का मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया, आज उन्हीं के बेटे जयंत चौधरी मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के साथ गठबंधन कर चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं. आलम यह है कि जयंत अखिलेश के लिए बैटिंग कर रहे हैं, ताकि अखिलेश फिर से मुख्यमंत्री बन सकें.
खैर, ये दोनों ही नेता अपने-अपने पिता की सियासी विरासत को संभाल रहे हैं. इनकी दोस्ती का मकसद 2022 का चुनाव है. लेकिन आज से करीब 42 साल पहले इन दोनों के पिता की दोस्ती भी चुनाव की वजह से टूट गई थी. उस जंग में अखिलेश के पिता मुलायम सिंह यादव ने जयंत के पिता अजित सिंह को पटखनी दे बनते सियासी समीकरण को बिगाड़ने का काम किया था.
दरअसल, 11 अक्टूबर, 1988 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन था और उसी दिन भारतीय सियासत में एक नई पार्टी का जन्म हुआ, जिसे जनता दल नाम दिया गया. इसमें जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल अजित और लोकदल बहुगुणा के साथ ही कांग्रेस (एस) का विलय किया गया था. वहीं, 1989 में सूबे में विधानसभा चुनाव होने थे और उस दौरान प्रदेश में विधानसभा की कुल 425 सीटें हुआ करती थीं.
इधर, कांग्रेस विरोधी लहर में जनता दल ने 356 सीटों पर चुनाव लड़ा और उसे 208 सीटों पर जीत मिली तो वहीं, कांग्रेस 410 सीटों पर चुनाव लड़कर भी 94 सीटें ही हासिल कर पाई थी. ऐसे में बहुमत किसी के पास नहीं था, लेकिन जनता दल बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. उसे सरकार बनाने के लिए कम से कम पांच और विधायकों का समर्थन चाहिए था.
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जनता दल भले ही इस चुनाव में बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. लेकिन जनता दल में नेतृत्व का निर्णय इसलिए मुश्किल था, क्योंकि जनता दल कोई एक पार्टी न होकर अलग-अलग पार्टियों का समूह थी. यही कारण है कि इसके हर नेता की अपनी सियासी महत्वाकांक्षा थी और यही महत्वाकांक्षा केंद्र में सरकार बनाने के समय भी सामने आई थी.
हालांकि, तब यह तय हुआ था कि प्रधानमंत्री तो चौधरी देवीलाल बनेंगे. खुद वीपी सिंह कई साक्षात्कारों में यह कह चुके थे कि नेता का चुनाव संयुक्त मोर्चा ही करेगा. लेकिन जब नेता चुनने की बारी आई और चौधरी देवीलाल के नाम का प्रस्ताव रखा गया तो चौधरी देवीलाल ने कहा कि वो सिर्फ ताऊ ही बने रहना चाहते हैं. उन्होंने प्रधानमंत्री पद के लिए विश्वनाथ प्रताप सिंह के नाम का प्रस्ताव रख दिया. वीपी सिंह का नाम आते ही चौधरी अजित सिंह ने उस नाम का अनुमोदन कर दिया. इससे नाराज चंद्रशेखर चिल्ला उठे और सदन से बाहर निकल गए.
वहीं, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के भी नतीजे आ गए थे. प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने तय किया कि यूपी के नए मुख्यमंत्री अजित सिंह होंगे. मुलायम सिंह यादव का नाम प्रदेश के उपमुख्यमंत्री के लिए तय किया गया था. लेकिन मुलायम ने इसका विरोध कर दिया और इस विरोध की वजह थी अजित सिंह से 1987 में हुई उनकी पुरानी अदावत.