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अब भरण पोषण के मामले में माता-पिता के अलावा संतान भी कर सकेंगे अपील - matter of maintenance apart from parents

हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि भरण-पोषण अधिनियम के तहत सिर्फ माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक ही नहीं, उनकी संतानें या कोई भी पक्षकार अथवा प्रभावित व्यक्ति एसडीएम के आदेश को जिलाधिकारी के समक्ष चुनौती दे सकता है.

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हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच

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Published : May 20, 2022, 10:30 PM IST

लखनऊ: हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण अधिनियम के तहत सिर्फ माता-पिता या वरिष्ठ नागरिक ही नहीं, उनकी संतानें या कोई भी पक्षकार अथवा प्रभावित व्यक्ति एसडीएम के आदेश को जिलाधिकारी के समक्ष चुनौती दे सकता है.

दरअसल, उक्त अधिनियम में अपील माता-पिता अथवा वरिष्ठ नागरिकों की ओर से ही दाखिल किए जाने की बात कही गई है. न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि विधायिका का यह आशय नहीं हो सकता कि वह एक प्रभावित पक्षकार को अपील के अधिकार से ही वंचित कर दे और दूसरे पक्षकार को यही अधिकार प्रदान करे. न्यायालय ने अपील के अधिकार में संतानों और अन्य प्रभावित पक्षकारों का उल्लेख न होने को ‘आकस्मिक चूक’ करार दिया है.

यह निर्णय न्यायमूर्ति श्रीप्रकाश सिंह (Justice Sriprakash Singh) की एकल पीठ ने रूपम उर्फ ज्योति शर्मा और उनके पति की ओर से दाखिल याचिका पर पारित किया. न्यायलाय ने इस निर्णय के साथ ही जिलाधिकारी, लखनऊ के उस आदेश को भी निरस्त कर दिया जिसमें याचियों की ओर से दाखिल अपील को अपोषणीय मानते हुए अस्वीकार कर दिया गया था.

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याची संख्या एक के ससुर ने उक्त अधिनियम की धारा 5 के तहत एसडीएम, सदर के समक्ष प्रार्थना पत्र दाखिल करते हुए, राजधानी के कल्याणपुर क्षेत्र स्थित उसके मकान को याचियों से खाली कराने का आदेश दिया था. ससुर के प्रार्थना पत्र को एसडीएम ने स्वीकार कर लिया. इसके विरुद्ध याचियों द्वारा जिलाधिकारी के समक्ष अपील की गई.

जिलाधिकारी ने अपील को खारिज करते हुए अपने आदेश में कहा कि अधिनियम की धारा 16(1) के तहत सिर्फ माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों को ही अपील का अधिकार है. याचीगण इस कैटेगरी में नहीं आते. न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि यह कानून का स्थापित सिद्धांत है कि न्यायाधीश विधायिका द्वारा बनाए किसी कानूनी प्रावधान के शब्दों में बदलाव नहीं कर सकता लेकिन दूसरा पहलू यह भी है कि यदि कानून की शब्दावली ही ‘आकस्मिक चूक’ के कारण त्रुटिपूर्ण है तो न्यायालय की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है.

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