उत्तर प्रदेश

uttar pradesh

ETV Bharat / state

UP Assembly Election 2022: आखिर किस दल के लिए इस बार किंगमेकर साबित होगा दलित वोट बैंक...

यूपी की राजनीति में अहम जगह रखने वाले दलित वोट बैंक को लेकर दलों में खींचतान शुरू हो गई है. हर दल चाह रहा है कि यह वोट बैंक जितना ज्यादा मेहरबान होगा जीत उतनी ही नजदीक होगी. चलिए जानते हैं आखिर इस बार के चुनाव में यह वोट बैंक किस करवट बैठेगा.

UP Assembly Election 2022, Uttar Pradesh Assembly Election 2022, UP Election 2022 Prediction, UP Election Results 2022, UP Election 2022 Opinion Poll, UP 2022 Election Campaign highlights, UP Election 2022 live, Akhilesh Yadav vs Yogi Adityanath, up chunav 2022, UP Election 2022, up election news in hindi, up election 2022 district wise, UP Election 2022 Public Opinion, यूपी चुनाव न्यूज, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव, यूपी विधानसभा चुनाव 2022
दलित वोट बैंक: आखिर किस दल के लिये होगा किंगमेकर

By

Published : Jan 19, 2022, 6:39 PM IST

लखनऊ: उत्तर प्रदेश में होने वाला 2022 का चुनाव हर दिन रोचक होता जा रहा है. सपा व भाजपा में नेताओं का आना-जाना सबाब पर है. ऐसे में सूबे में चार बार मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती की पार्टी बसपा इस चुनावी शोरगुल से दूर कोसों दूर हैं. बहन जी की शांति उनके कोर वोटर्स में खलबली मचा रही है. अब यह सवाल भी उठने लगा है कि अगर बसपा चुनाव में लड़ी ही नहीं हो तो उन्हें कौन सा नया रास्ता चुनना होगा.



पिछले तीन दशक से यूपी के दलित वोटर्स बसपा पर अपना विश्वास दिखाते आ रहे हैं. मायावती भी भले ही चुनावों में कभी मुस्लिम तो कभी ब्राह्मणों को लुभाने के लिए सोशल इंजीनियरिंग का कार्ड खेलती रही हो लेकिन उनका बेस वोट बैंक टस से मस नही हुआ. हालांकि इस बार मायावती द्वारा चुनाव में खासा दिलचस्पी न दिखाने से वो वोट बैंक अपना नया रास्ता तय करने का मन बना रहा है. ये रास्ता ऐसे ही नही तय हो रहा है. बीजेपी की मोदी-योगी सरकार पिछले पांच सालों से अपनी विभिन्न योजनाओं के सहारे दलित वोट बैंक को खुश करने में जुटी थीं. यही नही दलितों के घर भोजन कर बीजेपी दलित वोट बैंक को साध रही है.

यह बोले राजनीतिक विश्लेषक व वरिष्ठ पत्रकार विजय उपाध्याय.
पहले चरण के चुनाव में एक महीने से कम का वक़्त है और मायावती की सुस्त चाल से दलित मतदाता की उदासीनता को लेकर तमाम तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. राज्य में दलितों की आबादी करीब 21 फीसदी है. इसमें सबसे ज्यादा हिस्सा जाटव (55 फीसदी) का है. दलितों में पासी, धोबी, कोयरी की हिस्सेदारी 12 फीसदी है.

वाल्मीकि, धानुक, खटीक, बहेलिया, बावरिया, धनगर, गोंड, नट, मुसहर और शिल्पकार जैसी जातियां न के बराबर ही हैं. इसमें जाटव ने हमेशा बसपा पर भरोसा जताया है. कहा जाता था कि बसपा का मतलब ही जाटव है. वहीं, पासी, धोबी, खटिक और बाल्मीकि का झुकाव बीजेपी की तरफ है. वहीं, कनौजिया, कोल और धानुक अलग अलग दलों के साथ जाते रहे हैं.


राजनीतिक विश्लेषक अंशुमान शुक्ला का कहना है कि 1995 में मायावती जब पहली बार मुख्यमंत्री बनी थीं, उसके बाद ही दलित मुखर हुए और उनमें सियासी जागरूकता भी बढ़ी. मायावती की सियासी एंट्री से पहले दलित कांग्रेस का बेस वोट बैंक माना जाता था.

मायावती की राजनीति पृष्ठभूमि दलितों की 55 प्रतिशत आबादी जाटव के इर्द-गिर्द घूमती रही है. इस वोटबैंक को सुरक्षित रखने के सभी प्रयास करने के बावजूद 2012 विधान सभा चुनाव से 2019 के लोक सभा चुनाव तक मायावती के हाथ से ये वोट बैंक सरक रहा है. इस वोट बैंक ने 2014, 2017 और 2019 लोक सभा विधान सभा चुनाव में बीजेपी पर भरोसा जताया है.


यूपी भाजपा एससी/एसटी मोर्चा के अध्यक्ष राम चंद्र कनौजिया कहते हैं कि पार्टी के नारे सबका साथ, सबका विकास के पीछे छिपे हुए संदेश को समझने की जरूरत है. हम ऊंची जाति और दलितों के बीच की खाई को भरना चाहते हैं, जो सदियों से चली आ रही है. उन्होंने कहा कि महामारी के दौरान राशन और जन औषधि योजना जैसे कदमों ने सामाजिक-आर्थिक रूप से उत्पीड़ित वर्ग को काफी राहत पहुंचाई।



यूपी की 21 फीसदी कुल दलित आबादी में 55 फीसदी जाटव हैं. दलितों की कुल आबादी में 3.3 फीसदी पासी, कोरी व बाल्मीकि 3.15 फीसदी, 1.5 धानुक, 1.3 बाल्मीकि, 1.2 खटीक और 4.5 अन्य हैं. ऐसे में भाजपा और सपा इन्हें अपने पाले में लाने में लगी हुईं हैं.

चूंकि 2017 के विधान सभा चुनाव और 2019 के लोक सभा चुनाव में गैर जाटव वोट बैंक भाजपा के पाले में एकमुश्त गिरा था इसको देखते हुए पार्टी ने 2019 के चुनाव के बाद से सभी जिलों में विशेष सभाएं की.

यहीं नही दलितों के घर जाकर खाना खाना हो या फिर सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का सीधा लाभ उन तक पहुंचना बीजेपी ने कोई कसर नही छोड़ी थी। इस बार के विधान सभा चुनाव के मद्देनजर भी बीजेपी ने पहले और दूसरे चरण के प्रत्याशियों की लिस्ट में दलित वर्ग का खासा ध्यान दिया है। पार्टी की 107 उम्मीदवारों की जो पहली लिस्ट आई है उसमें 19 दलितों को टिकट दिया है जिसमें से 13 जाटव है। यह वही दलित उप-जाति है जिससे मायावती का बेस वोटर है।



समाजवादी पार्टी को भी 2012 के विधान सभा चुनाव में कुल 86 आरक्षित सीटों में 58 सीटों पर जीत मिली थी यानी गैर जाटव दलित ने समाजवादी पार्टी पर भरोसा दिखाया था जिसको लेकर ये कयास लगाये जाने लगे कि सपा पर अब गैर यादव ओबीसी और दलित वर्ग अपना भरोसा दिखा रहा है. इसे लेकर सपा ने 2022 में ये भरोसा वापस पाने के लिए और बीजेपी को टक्कर देने के लिए गैर यादव ओबीसी नेताओं को अपने साथ जोड़ने का सिलसिला शुरू किया. योगी सरकार के 3 मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धरम सिंह सैनी को सपा ने अपने खेमे में शामिल कर लिया.


दलित भाजपा पर कर रहा है भरोसा

दलित वोट बैंक कभी भी भारतीय जनता पार्टी पर भरोसा नही करता था. 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के जादू ने दलितों को मोह लिया और इस वर्ग ने बढ़चढ़ कर बीजेपी को वोट किया. उसके बाद से ही लगातार बीजेपी को दलितों का साथ मिलता आया है. सूबे की 403 विधान सभा सीटों की 86 आरक्षित विधान सभाओं की बात करे तो 2012 में जहां बीजेपी को 3 सीटों पर जीत मिली थी तो वहीं, 2017 में बढ़कर ये सीटें 70 हो गईं. साफ है कि मायावती की उदासीनता के चलते बसपा का वोट बैंक कभी बीजीपी तो सपा के पाले में जाता दिखा है. इस बीच दलितों वोट बैंक का बीजेपी पर भरोसा का इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है कि 2019 के लोक सभा चुनाव में सपा ने बसपा के साथ हाथ मिलाया उसके बाद भी उसे दलित वोट नही मिल सका था. हालांकि मायावती जरूर 2014 में शून्य से 10 तक पहुंच गईं.

ये भी पढ़ेंः सपा से ऐसे दूर चलीं गईं मुलायम कुनबे की छोटी बहू अपर्णा...पढ़िए पूरी खबर



दलित चिंतक प्रोफ़ेसर कविराज का मानना है कि दलित समूह में सिर्फ गैर जाटव ही मूव करता है. पहले बसपा के साथ था फिर सपा में आया और अब बीजेपी में गया, क्योंकि ग़ैर जाटव में कोई लीडर नही है इसके चलते इन्हें जहां से धोखा मिलता है ये हट कर दूसरी तरफ चले जाते है. गैर जाटव दलित हमेशा से राजनीतिक दलों के लिए प्रोटीन का काम करती आई है और जिसे ये प्रोटीन मिला और सत्ता मिल जाती है. प्रो. कविराज के मुताबिक इस बार के चुनाव में जो दलित समूह बीजीपी से नाराज है वही सिर्फ सपा के साथ जाएगा.


वरिष्ठ पत्रकार विजय उपाध्याय कहते है कि अब दलित वोटर जैसा कांसेप्ट उत्तर प्रदेश की राजनीति में खत्म हो गया है. 2007 तक अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के जो वोटर थे वह बसपा के साथ थे लेकिन 2012 के बाद से ही यह अलग-अलग वोटों में बिखर गए. 2014 में तो यह कांसेप्ट पूरी तरह से टूट गया और ये दो हिस्सों में बट गए एक जाटव और दूसरे गैर जाटव जिसमें जाटव तो बसपा के साथ रहा लेकिन कुल दलित आबादी का 10% गैर जाटव वर्ग अलग-अलग वोट करने लगे.

2014 के बाद से गैर जाटव वोट बैंक भाजपा के पाले में आने लगा जबकि 2019 में बसपा, आरएलडी और समाजवादी पार्टी एक साथ चुनाव लड़े, उसके बाद भी भाजपा को 51% दलित वोट मिला. यह जरूर है कि सरकार के खिलाफ जो माहौल बना है उससे थोड़ा बहुत दलित वोट समाजवादी पार्टी में जा सकता है. इसका कारण है अति पिछड़े नेताओं का भाजपा से हटकर सपा के साथ आना लेकिन अधिकतम दलित वोट बैंक बीजेपी के साथ ही रहने की उम्मीद है.

ऐसी ही जरूरी और विश्वसनीय खबरों के लिए डाउनलोड करें ईटीवी भारत ऐप

ABOUT THE AUTHOR

...view details