हैदराबाद: आजादी के बाद देश के साथ ही उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस का दबदबा था. लेकिन इस सियासी दबदबे के बीच पार्टी अपने नेताओं की आपसी खींचतान से दो राहे और भीतरिया गुटबाजी से ग्रसित रही. साल 1951 में हुए पहले चुनाव से लेकर अब तक मायावती, अखिलेश यादव और वर्तमान मुख्यमंत्री योगी अदित्यनाथ को छोड़कर कोई भी लगातार पांच सालों तक मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नहीं बैठ सका है.
हालांकि, पहली बार साल 2007 में बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती के नेतृत्व में सूबे में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी. मायावती के सत्ता में आने के बाद सूबे में स्थिरता के दौर की शुरुआत हुई. इसके बाद अखिलेश यादव और फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को मिली ऐतिहासिक जीत के बाद योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सूबे में सरकार बनी. फिलहाल योगी सरकार ने अपने साढ़े चार साल के कार्यकाल को पूरा कर लिया है और अगले साल यहां चुनाव होने हैं.
खैर, एक दौर वह भी था, जब उत्तर प्रदेश की सियासी अस्थिरता के कारण प्रदेश विकास से कोसों दूर हो गया था. यहां की सियासी अस्थिरता के किस्से दूसरे राज्यों से लेकर संसद तक में गूंजा करते थे. देश के साथ ही उत्तर प्रदेश की सियासत में भी कांग्रेस का दबदबा था. उस वक्त भी कांग्रेस के बड़े नेताओं में आपसी खींचतान और गुटबाजी चरम पर थी.
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प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने मई 1952 से दिसंबर 1954 तक बिना किसी दिक्कत के अपना कार्यकाल पूरा किया. लेकिन 1954 में उन्हें दिल्ली बुला लिया गया. इसके बाद डॉ. संपूर्णानंद को बिना किसी विरोध के नया मुख्यमंत्री चुना गया. इधर, पार्टी में गुटबाजी चरम पर थी. पर पंडित गोविंद वल्लभ पंत ने इसे कभी सामने नहीं आने दिया था.
वहीं, साल 1957 में हुए दूसरे विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस को सरलता मिली और डॉ. संपूर्णानंद दोबारा सूबे के मुख्यमंत्री चुने गए. लेकिन पंडित कमलापति त्रिपाठी और चंद्रभानु गुप्ता इससे नाराज थे. इन नेताओं के विरोध की वजह से दिसंबर 1960 में डॉ. संपूर्णानंद को अपने पद से हटना पड़ा.
इसके बाद चंद्रभानु गुप्ता शेष कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री बने. 1962 में तीसरी विधानसभा के चुनाव में भी कांग्रेस को सफलता मिली और फिर चंद्रभानु गुप्ता मुख्यमंत्री बने, लेकिन पार्टी के भीतर विरोध के चलते उन्हें अक्तूबर 1963 में हटा दिया गया और सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बनाया गया.
इस दौर के सियासत की खास बात यह थी कि तमाम विरोध और गुटबाजी के बावजूद सत्ताधारी पार्टी में टूट-फूट नहीं हुई. वहीं, मार्च 1967 में चौथी विधानसभा के गठन के साथ ही यहां अस्थिरता का दौर शुरू हुआ. चौधरी चरण सिंह कांग्रेस में अपनी स्थिति से खुश नहीं थे. ऐसे में उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर किसानों व पिछड़ों को लामबंद करना शुरू किया.
इसका नतीजा यह हुआ कि 1967 के चुनाव में कांग्रेस को बामुश्किल बहुमत हासिल हुई. इतना ही नहीं चौधरी चरण सिंह ने चंद्रभानु गुप्ता को मुख्यमंत्री बनाने का जमकर विरोध करते हुए पार्टी तोड़ दी और उनके साथ कांग्रेस के कई विधायक चल आए.
ऐसे में चंद्रभानु गुप्ता सरकार अल्पमत में आ गई और 14 मार्च, 1967 से 2 अप्रैल, 1967 तक महज 19 दिन मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्हें आखिरकार पद से हटना पड़ा. इधर, वैचारिक अंतर्विरोधों के कारण चौधरी चरण सिंह की सरकार महज एक साल में गिर गई. वहीं, उनके इस्तीफे के बाद 1968 में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया.
हालांकि, उत्तर प्रदेश के सियासी इतिहास में यह पहली विधानसभा थी जो अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सकी थी. बात अगर पांचवीं विधानसभा की करें तो इसमें एक-दो नहीं, बल्कि पांच मुख्यमंत्री बने. 1969 में पांचवीं विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस को 211 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. यानी स्पष्ट बहुमत नहीं होने के कारण कांग्रेस ने जोड़-तोड़ करके चंद्रभानु गुप्त को एक बार फिर मुख्यमंत्री बनाया.