लखनऊ :बिहार सरकार की तरफ से जारी की गई जातिगत जनगणना की रिपोर्ट के बाद से एक बार फिर से देश में आरक्षण किस आधार पर दिया जाए इसकी चर्चा तेज हो गई है, जहां इस मुद्दे पर एक धड़ा जनसंख्या के आधार पर रिजर्वेशन देने की मांग कर रहा है तो वहीं विशेषज्ञों का कहना है कि पहले से चली आ रही आरक्षण व्यवस्था को देखने के बाद अब इसमें बदलाव करते हुए इसे आर्थिक तौर पर देना ही सबसे बेहतर विकल्प हो सकता है. विशेषज्ञों का कहना है कि संविधान बनाते समय आरक्षण को 10 वर्ष के लिए ही लागू किया था. अब लोगों में कुछ हद तक समझ में समानता का माहौल बन चुका है, ऐसे में आर्थिक आधार पर आरक्षण को लागू करके हर समाज में जो पिछड़े लोग हैं उन्हें मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है.
लखनऊ विश्वविद्यालय के राजनीतिक शास्त्र विभाग के प्रोफेसर संजय गुप्ता का कहना है कि 'बिहार सरकार ने जो जाति आधारित जनगणना की सूची जारी की है वह एक कन्फ्यूजन का माहौल बना रही है. उन्होंने कहा कि बिहार के मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि जाति आधारित जनगणना के अनुसार उसे जाति को उसके हिसाब से हिस्सेदारी दे देनी चाहिए. ऐसे में उन्होंने जो रिपोर्ट जारी की है उसमें मुख्यमंत्री जिस बिरादरी से आते हैं उसकी कुल हिस्सेदारी 2.5 परसेंट के आसपास है, जबकि उनके साथ गठबंधन में शामिल राष्ट्रीय जनता दल जो यादव जाति का प्रतिनिधित्व करती है उसकी हिस्सेदारी इसमें 14% से अधिक है. ऐसे में तो मुख्यमंत्री का पद तेजस्वी यादव को दे देना चाहिए, इतना ही नहीं इसी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों को 17% से अधिक दिखाया गया है. ऐसे में वह भी अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाने की मांग कर सकते हैं. मौजूदा समय वह कम से कम एक उपमुख्यमंत्री का पद भी मांगना शुरू कर चुके हैं.'
प्रोफेसर संजय गुप्ता ने कहा कि बिहार सरकार की ओर से जारी इस जनगणना सर्वेक्षण ने उसको दरकिनार कर अब इस आबादी के अनुसार लागू करने की बात कही है जो पूरी तरह से हटकर है. जाति आधारित आरक्षण की बात करें तो खुद बिहार में यादव और कुर्मी सत्ता की भागीदारी में है. क्या यह दोनों बिरादरी अपने से कम जनसंख्या वाली बिरादरी को आगे आने देंगे. ऐसे में कौन सी जाति अपने आप को पीछे कर दूसरे जाति के लोगों को पॉलिटिकल तौर पर आगे बढ़ाने की प्रयास करेगी. प्रोफेसर गुप्ता ने कहा कि ऐसे में आर्थिक आधार पर आरक्षण देना ही सबसे एक बेहतर विकल्प हो सकता है.'