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बसपा के सामने वजूद का संकट, लोकसभा चुनाव में बन सकते हैं नए समीकरण - उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति

बसपा के बारे में यह कहा जाने लगा है कि इस राजनीतिक दल की सक्रियता सिर्फ चुनावों में ही दिखाई देती है. काफी हद तक यह बातें सही भी हैं. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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Published : Dec 20, 2022, 10:00 AM IST

Updated : Dec 20, 2022, 10:33 AM IST

लखनऊ :उत्तर प्रदेश की चार बार मुख्यमंत्री रहीं बसपा प्रमुख मायावती के राजनीतिक रूप से पहले की तरह सक्रिय न होने के कारण धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी अवसान की ओर ले जा रहा है. बसपा के बारे में यह कहा जाने लगा है कि इस राजनीतिक दल की सक्रियता सिर्फ चुनावों में ही दिखाई देती है. काफी हद तक यह बातें सही भी हैं. समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव की सरकार रही हो अथवा योगी आदित्यनाथ की सरकार, पिछले 10 साल में जनता के किसी मुद्दे को लेकर बहुजन समाज पार्टी ने कोई भी यादगार आंदोलन नहीं किया. मायावती के बयान ट्विटर के माध्यम से ही जारी होते हैं. वह बिरले ही कभी मीडिया से मुखातिब होती हैं. यही कारण है कि प्रदेश की राजनीति से धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी का वजूद घटता जा रहा है. हाल ही में प्रदेश में संपन्न हुए उपचुनाव में जिस तरह मुजफ्फरनगर की खतौनी विधानसभा सीट राष्ट्रीय लोक दल ने जीती और भीम आर्मी के प्रमुख और दलित नेता चंद्रशेखर का उन्हें सहयोग मिला इससे यह सुगबुगाहट तेज हो गई कि प्रदेश में एक नई राजनीति का उभार हो सकता है.

यूपी की राजनीति

उत्तर प्रदेश की दलित राजनीति (dalit politics of uttar pradesh) में एक नई इबारत लिखने वाली मायावती पहली बार वर्ष 1995 में मुख्यमंत्री बनी थीं. वह देश में मुख्यमंत्री बनने वाली पहली अनुसूचित जाति की महिला थीं. वर्ष 1997 और 2002 में भी वह भारतीय जनता पार्टी के बाहरी समर्थन से प्रदेश की सत्ता पर काबिज हुईं और मुख्यमंत्री बनीं. वर्ष 2007 के विधानसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश की जनता ने उन पर गहरा विश्वास दिखाया और बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण बहुमत देकर सत्ता में भेजा. इन पांच वर्षों में मायावती का मुख्यमंत्री के रूप में कामकाज खासा चर्चा में रहीं. कई घपले घोटाले हुए और मंत्रियों को सलाखों के पीछे जाना पड़ा. वहीं नौकरशाही पर अपने सख्त रवैया के कारण मायावती की आज भी चर्चा होती है. इस सबके बावजूद वर्ष 2012 में हुए विधानसभा चुनावों में लोगों ने बसपा को नकार दिया और अखिलेश यादव की पूर्ण बहुमत की सरकार वजूद में आई. यही वह दौर था जब एक तरह से बहुजन समाज पार्टी की निष्क्रियता शुरू हुई. मायावती सिर्फ चुनाव के समय सभाएं करतीं, लेकिन जनता के सरोकारों को सड़कों पर आंदोलन का रूप देने से हमेशा बचती रहीं. यह बहुजन समाज पार्टी की नीति भी हो सकती है. हालांकि पार्टी को इसका खासा नुकसान उठाना पड़ा. वर्ष ‌2007 में जो पार्टी पूर्ण बहुमत में सत्ता में थी, 15 साल बाद आज विधानसभा में उसका सिर्फ एक विधायक नेतृत्व कर रहा है. विधान परिषद में पार्टी का नेतृत्व करने वाला कोई नहीं. यही कारण है कि धीरे-धीरे बहुजन समाज पार्टी का वजूद खतरे में (Existence of Bahujan Samaj Party in danger) पड़ता दिखाई दे रहा है.

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दूसरी ओर मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में राष्ट्रीय लोक दल व सपा गठबंधन ने जिस तरह से सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी से यह सीट छीनी है. उससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि लोकसभा चुनावों में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति (Politics of Western Uttar Pradesh) में बड़ा उलटफेर देखने को मिल सकता है. कहा जा रहा है कि लोकदल ने इस उपचुनाव में भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर (Chief of Bhim Army Chandrashekhar) का सहयोग लिया और वह क्षेत्र के हजारों दलित वोटरों को राष्ट्रीय लोक दल की (Rashtriya Lok Dal) ओर रिझाने में कामयाब रहे. यदि यह बात सही है और दलित, मुस्लिम व जाट गठजोड़ मजबूत होता है तो वर्ष 2024 में प्रस्तावित लोकसभा के चुनावों में भाजपा के लिए नई चुनौती खड़ी कर सकते हैं. हालांकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त भीम आर्मी अथवा चंद्रशेखर का कोई खास वजूद नहीं है, लेकिन राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं होता. भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश से ज्यादा से ज्यादा सीट जीतना चाहेगी, क्योंकि पार्टी का लक्ष्य लगातार तीसरी बार नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाना है. पार्टी का यह सपना उत्तर प्रदेश के बगैर सच होना कठिन है. ऐसे में यदि नए समीकरण जन्म लेते हैं, तो निश्चित रूप से आगामी चुनाव बहुत रोचक हो सकता है.

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Last Updated : Dec 20, 2022, 10:33 AM IST

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