लखनऊ :राजधानी के निजी स्कूलों ने एक बार फिर फीस बढ़ाने का एलान कर दिया है. आगामी सत्र से अभिभावकों को 12 प्रतिशत अधिक फीस देनी होगी. कोरोना संकट के समय विद्यालयों पर फीस वृद्धि न करने का दबाव था और सरकारी स्तर पर भी उन्हें फीस बढ़ाने से रोका गया था. फीस वृद्धि को लेकर निजी विद्यालयों के अपने तर्क हैं, लेकिन आखिर सरकार अधिक पैसा और संसाधन खर्च करने के बावजूद सरकारी शिक्षा व्यवस्था को सुधारने में नाकाम क्यों है? क्यों सरकारी विद्यालयों में गुणवत्ता का अभाव है? क्यों शिक्षकों की जवाबदेही का तंत्र नहीं बन पा रहा है?
प्रदेश में निजी विद्यालयों में शिक्षा काफी महंगी है. चिंताजनक बात यह है कि निजी विद्यालय साल दर साल फीस में मनमानी वृद्धि करते रहते हैं. यह बात और है कि कोरोना वायरस के कारण पिछले दो साल से फीस वृद्धि नहीं की गई, हालांकि इस दौरान विद्यालयों ने ऑनलाइन पढ़ाई का अवसर दिया. यह एक चर्चा और डिबेट का विषय हो सकता है कि सरकार को मनमानी फीस वृद्धि पर कोई नियंत्रण रखना चाहिए या नहीं. क्योंकि निजी विद्यालय शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर पैसे वसूलते हैं और सरकार इसका विकल्प दे पाने में पूरी तरह से नाकाम है. सरकारी स्तर पर उच्च शिक्षा में यह शून्य नहीं है, लेकिन नर्सरी से 12वीं तक की पढ़ाई के लिए सरकारी स्कूलों में ऐसे ही लोग जाना पसंद करते हैं जो निजी विद्यालयों की फीस नहीं भर सकते. ऐसे में सवाल उठता है कि सरकार जब प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों पर करोड़ों रुपये खर्च करती है, तो शिक्षा में गुणवत्ता का ख्याल क्यों नहीं रखा जा सकता? क्या सरकार की इच्छाशक्ति में कमी है या सरकारी तंत्र उचित शिक्षा व्यवस्था करा पाने में लाचार है?
प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा में नौकरी के लिए दशकों से मारामारी है. लोगों में एक धारणा बन गई है कि यह वह नौकरी है, जहां काम कम और पैसे ज्यादा हैं. कुछ हद तक यह बात सही भी है. इस नौकरी में आने वाले लोग शायद कुछ समय बाद ही भूल जाते हैं कि उन पर एक पीढ़ी के निर्माण का दायित्व है, हालांकि इस सब के लिए गलती शिक्षकों के बजाय सरकार की मानी जानी चाहिए. यह सरकार का दायित्व है कि ऐसी चयन प्रणाली बनाए जिससे योग्य शिक्षक स्कूलों में आएं और बच्चों के भविष्य का निर्माण कर सकें. कई बार मीडिया में खबरें आती हैं कि प्राथमिक शिक्षक निहायत सही जानकारी तक नहीं रखते. सरकार का यह भी दायित्व है कि गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा के साथ शिक्षकों की जिम्मेदारी तय हो. आखिर यह कैसे हो जाता है कि पांचवीं पास बच्चा भी अपना नाम नहीं लिख पाता. क्या उन शिक्षकों को दंडित नहीं किया जाना चाहिए, जिन्होंने ऐसे बच्चों को पढ़ाया और पास किया. खेद है कि सरकारें शिक्षा में सुधार को लेकर कतई गंभीर नहीं हैं. साल दर साल से उसी ढर्रे पर पढ़ाई हो रही है. शायद सरकारों को लगता होगा कि अयोग्य और अनपढ़ जनता ही चुनावी राजनीति के लिए मुफीद हो. यदि ऐसा नहीं है तो आखिर क्यों अब तक किसी भी पार्टी की किसी भी सरकार में शिक्षा में सुधार के लिए गंभीर कदम नहीं उठाए गए. यदि सरकारी विद्यालयों में अच्छी शिक्षा मिल सके, तो लोग क्यों निजी विद्यालयों में मोटी रकम खर्च कर बच्चों को पढ़ाएंगे.