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कहीं यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती के लिए काल न बन जाएं दलित वोटर्स! - बसपा के संस्थापक कांशीराम

सूबे के सियासी जानकारों की मानें तो अबकी यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा सुप्रीमो मायावती को दलितों से ही अधिक खतरा हो सकता है, क्योंकि अचानक उनके ब्राह्मणों के प्रति बढ़े झुकाव से दलितों का एक तबका उनसे नाराज है. साथ ही पश्चिमी यूपी में भीम सेना के सुप्रीमो चंद्रशेखर की बढ़ी साख और सक्रियता आगे मायावती के लिए चुनौती साबित हो सकता है.

कहीं यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती के लिए काल न बन जाएं दलित वोटर्स!
कहीं यूपी विधानसभा चुनाव में मायावती के लिए काल न बन जाएं दलित वोटर्स!

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Published : Sep 25, 2021, 11:23 AM IST

लखनऊ:यूपी की सियासत (UP Assembly Election - 2022) में अबकी ब्राह्मणों की अहमियत को अगर समझना है तो इसी से समझा जा सकता है कि हर पार्टी इन्हें आकर्षित करने को सम्मेलनों का आयोजन कर रहे हैं. कभी समाजवादी पार्टी(Samajwadi Party) ब्राह्मण सम्मेलन (brahmin convention) को सामने आती है तो कभी बहुजन समाज पार्टी (Bahujan samaj party). यानी कुल मिलाकर कहें तो क्षेत्रीय दलों के लिए अबकी ब्राह्मण मतदाता कई मायनों में अहम हो गए हैं. लेकिन अति ब्राह्मण प्रेम में जातिवादी सियासत (casteist politics)को जानी जाने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के मूल वोटर कहीं दूसरी ओर शिफ्ट तो नहीं हो रहे हैं.

दरअसल, सूबे में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं. यही कारण है कि सभी सियासी पार्टियां अभी से ही तैयारियों में जुट गई हैं. वहीं, बसपा सुप्रीमो मायावती (BSP supremo Mayawati)सूबे की सत्ता में वापसी को ब्राह्मणों को साधने में लगी हैं तो उनके दलित वोटबैंक में सेंधमारी को सारी पार्टियां रणनीति बना रही हैं.

80 दशक में दलित समाज के बीच बसपा के संस्थापक कांशीराम (BSP founder Kanshi Ram) ने सियासी चेतना जगाने का काम किया था. उन्होंने सियासत में दलितों का ऐसा प्रयोग किया कि बसपा देखते ही देखते यूपी में मजबूत होते गई और मायावती एक या दो बार नहीं, बल्कि चार बार सूबे की सीएम बनीं.

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हालांकि, लंबे समय तक दलित वोटों पर मायावती का एकछत्र राज रहा, लेकिन अब दलितों के एक तबके ने बसपा से किनारा बनाना शुरू कर दिया है. इस बात को बसपा सुप्रीमो मायावती भी अब समझने लगी हैं और यही कारण है कि वो सूबे की सत्ता में वापसी को ब्राह्मणों को साधने में लग गई हैं.

खैर, उनके ऐसा करने से उनके दलित वोटबैंक में सेंधमारी की संभवाना भी जाहिर की जा रही है. सियासी पंडितों की मानें तो पश्चिम यूपी में दलित सियासत का नया चेहरा बन उभरे चंद्रशेखर, मायावती का विकल्प हो सकते हैं. इधर, कांग्रेस, सपा के साथ ही भाजपा ने भी अबकी दलितों को अपने पाले में करने को कई दांव डाल रखे हैं.

गौर हो कि सूबे में ओबीसी समुदाय के बाद दूसरी सबसे बड़ी हिस्सेदारी दलितों की है. यहां दलितों की कुल आबादी 22 फीसद के आसपास है, जो जाटव और गैर-जाटव के बीच विभक्त हैं.

वहीं, 22 फीसद दलितों में भी 12 फीसद जाटव और 10 फीसद गैर-जाटव दलित हैं. इनमें भी तकरीबन 66 उपजातियां हैं. इसमें 55 ऐसी उपजातियां शामिल हैं, जिनका संख्या बल कम हैं, जिसमें मुसहर, बसोर, सपेरा और रंगरेज आते हैं.

वहीं, दलितों की कुल आबादी में 56 फीसद जाटव के साथ ही दलितों की अन्य उपजातियां भी हैं और इनकी आबादी 46 फीसद के आसपास है. इसमें पासी 16 फीसद, धोबी, कोरी और वाल्मीकि 15 फीसद व गोंड, धानुक और खटीक 5 फीसद के आसपास हैं.

गौर हो कि बसपा सुप्रीमो मायावती और भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर जाटव समुदाय से हैं और सूबे की दलित सियासत में इस समुदाय का प्रभुत्व प्रबल माना जाता है. लेकिन विपक्षी पार्टियों ने गैर-जाटव दलितों को अपने पाले में करने को रणनीति बनाना शुरू कर दिया है.

बात अगर सूबे के दलित समुदाय की करें तो जाटव और चमार की भागीदारी अन्य दलितों की तुलना में अधिक है. आजमगढ़, जौनपुर, आगरा, बिजनौर, मुजफ्फरनगर, गोरखपुर, गाजीपुर, अमरोहा, मुरादाबाद, नोएडा, अलीगढ़, गाजियाबाद, बस्ती, संतकबीरनगर, गोंडा, सिद्धार्थनगर, मेरठ, बुलंदशहर, बदायूं और सहारनपुर में जाटव समुदाय की संख्या अधिक है.

वहीं, पासी समुदाय दलितों में जाटव के बाद दूसरे स्थान पर आती है, जो खासकर मध्य यूपी में सियासी तौर पर काफी प्रभावी है. सीतापुर, रायबरेली, बाराबंकी, अमेठी, कौशांबी, प्रतापगढ़, लखनऊ देहात, फतेहपुर, उन्नाव, हरदोई, बस्ती, गोंडा में प्रभावी हैं.

दलितों में धोबी और वाल्मीकि समुदाय भी काफी अहम माने जाते हैं. बरेली, शाहजहांपुर, सुल्तानपुर, गाजियाबाद, मेरठ, हाथरस और बागपत में धोबी और वाल्मीकि समुदाय की संख्या अधिक है.

इसके अलावे दलितों में कोरी समुदाय खासकर कानपुर देहात, औरेया, इटावा, जालौन, महोबा, हमीरपुर, झांसी, फर्रुखाबाद, चित्रकूट, फिरोजाबाद, मैनपुरी और कन्नौज में अधिक प्रभावी है और इन जिलों में ये संख्यात्मक दृष्टि से अधिक हैं.

हालांकि, गैर-जाटव दलित समुदाय में खटिक भी महत्वपूर्ण माने जाते हैं और इनकी संख्या कौशांबी, कानपुर, इलाहाबाद, अमेठी, जौनपुर, बुलंदशहर, भदोही, वाराणसी, आजमगढ़, सुलतानपुर में अधिक है. वहीं, इस समुदाय पर भाजपा का प्रभाव अधिक माना जाता है.

इन जिलों में निर्णायक की भूमिका में हैं दलित मतदाता

दलितों की आबादी की बात करें तो यूपी में ऐसे 42 जिलें हैं, जहां दलितों की संख्या करीब 20 फीसद से भी अधिक है. वहीं, सूबे में सबसे अधिक दलित आबादी सोनभद्र में है, जहां इनकी आबादी करीब 42 फीसद के आसपास है तो कौशांबी में 36 फीसद, सीतापुर में 31 फीसद, बिजनौर व बाराबंकी में 25-25 फीसद है.

इसके अवाले सहारनपुर, बुलंदशहर, मेरठ, अंबेडकरनगर और जौनपुर में ये लोग निर्णायक की भूमिका में है. साथ ही आपको बता दें कि सूबे में 17 लोकसभा और 85 विधानसभा सीटें दलितों के लिए आरक्षित है.

नजर पिछले समीकरण पर

विधानसभा की 85 सीटें दलितों के लिए आरक्षित है. साल 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने इन विधानसभा क्षेत्रों में 31.5 फीसद वोट शेयर के साथ 58 सीटों पर जीत दर्ज की थी तो बसपा 27.5 फीसद वोट शेयर के साथ 15 सीटें जीतने में कामयाब रही थी. बात अगर भाजपा की करें तो यहां पार्टी 14.4 फीसद वोट शेयर के साथ केवल 3 सीटें ही जीत सकी थी.

हालांकि, 2017 के परिणाम पिछले आंकड़ों के विपरीत रहे थे और यहां भाजपा 39.8 फीसद वोट शेयर के साथ 85 में से 69 सीटों पर जीत दर्ज करने में कामयाब रही थी. वहीं सपा 19.3 फीसद वोट शेयर के साथ सात सीटों पर जीत दर्ज कर सकी थी तो बसपा को केवल दो सीटें मिली थी.

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