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जब मुश्किल वक्त में खुद कठपुतली बन गए ये कलाकार...

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Published : Jun 25, 2020, 8:57 PM IST

एक दौर था, जब कठपुतलियों का शो देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता था, लेकिन बदलते वक्त ने इस दिलचस्प खेल को हाशिए पर ला खड़ा किया है. हालांकि कुछ दिनों पहले लखनऊ में शूट हुई फिल्म 'गुलाबो-सिताबो' में कठपुतलियों के खेल को चंद सेकंड के लिए जरूर फिल्माया गया है, लेकिन यह भी इसकी महत्ता और क्रेज को बढ़ाने में नाकाफी साबित हुई.

lucknow puppets story
लोगों के बीच खत्म हो रहा कठपुतलियों का क्रेज.

लखनऊ: मेगास्टार अमिताभ बच्चन के एक फिल्म की शूटिंग की वजह से अचानक लोक कलाओं में मशहूर कठपुतलियां 'गुलाबो-सिताबो' के बारे में तमाम तरह की चर्चाएं शुरू हुई थीं, लेकिन इसके बावजूद लोगों के बीच दिलचस्प खेल कठपुतलियों (पपेट्स) का क्रेज खत्म होता नजर आ रहा है. पपेटियर्स का कहना है कि अब लोगों के बीच न तो लोक कलाओं की कद्र है और न ही उनके पास ये दिलचस्प खेल देखने का समय है.

गुलाबो सिताबो कठपुतलियां.

भारतीय संस्कृति में लोक कलाओं की महत्ता काफी अधिक रही है. लोक कलाओं के माध्यम से अलग-अलग जगहों पर अपने-अपने भाषा में आसपास के लोगों को तमाम तरह के सामाजिक संदेश दिए जाते रहे हैं. कुछ साल पहले तक इसे देखने के लिए भीड़ भी खुद-ब-खुद पहुंच जाती थी, लेकिन अब धीरे-धीरे इन लोक कलाओं की कद्र और महत्ता दोनों ही खत्म होती जा रही है.

क्या कहते हैं पपेटियर्स
राजधानी में लोक कलाओं के तहत कठपुतलियों के नाच और उनसे संदेश देने की कला को शुरू करने वाले अलख नारायण श्रीवास्तव बताते हैं कि सन् 1958 से उन्होंने कठपुतलियों के बारे में नैनी इंस्टिट्यूट से ट्रेनिंग लेकर पपेट शो करना शुरू किया था. वह कहते हैं, 'कई सरकारी संस्थानों से मुझे नौकरी करने के प्रस्ताव मिले, लेकिन किसी भी संस्थान में मैंने साल भर से ज्यादा काम नहीं किया. मुझे हमेशा से कठपुतलियों के साथ काम करने का शौक रहा और इसीलिए मैं हमेशा से ही इससे जुड़ा रहा.'

कठपुतलियां.

'80 के दशक तक थाकठपुतलियों काखासाक्रेज'

अलख नारायण श्रीवास्तव बताते हैं, 'मुझे याद है कि बरेली के एक सरकारी संस्थान में मैं नौकरी कर रहा था. वहां के प्रमुख ने मुझसे कहा कि या तो कठपुतली के साथ रहो या फिर नौकरी छोड़ दो. मैंने उसी दिन वहां से नौकरी छोड़ कर वापसी का फैसला कर लिया था. 80 के दशक तक लोगों में कठपुतलियों का बहुत क्रेज रहा. हम जहां भी जाते थे, वहां लोगों की भीड़ इकट्ठा हो जाती थी. कभी-कभी तो हमारी पपेट शो को देखने के लिए लोगों के बीच मारपीट तक की नौबत हो जाती थी. इस दौरान तमाम लोग आगे आए और कठपुतलियों के बारे में ट्रेनिंग ली और फिर इसमें दिलचस्पी दिखाते हुए इस ओर अपना कदम बढ़ाया.'

'कठपुतलियों की वजह से कभी नहीं हुई पैसों की कमी'
पपेटियर्स अलख नाराणण श्रीवास्तव ईटीवी भारत से बातचीत के दौरान बताते हैं, 'मैं एक बात गर्व से कह सकता हूं कि मेरे हाथ में जब तक कठपुतली रही तब तक मुझे कभी खाने के लाले नहीं पड़े. इन कठपुतलियों की वजह से हमारा घर हमेशा से सुखमयी तरीके से चलता रहा. जब भी मेरे पास पैसों की कमी हुई तो मैंने दोनों हाथों में कठपुतली पहनी और फिर से मैं संपन्न हो गया.'

कलाकारों के सामने छाया आर्थिक संकट.

अलख नारायण से ही कठपुतली सीखकर पपेट शो करने वाले मनमोहन लाल कहते हैं, 'सन 1974 में एक सरकारी संस्थान में में नौकरी कर रहा था. मुझे लोक गायन का शौक था, इसलिए रंगमंच पर मैं जाया करता था. वहां पर एक बार अलख जी ने किसी को भेजकर हमसे पूछा कि क्या हम कठपुतली सीखना चाहते हैं. मैं सच कहूं तो मैंने उससे पहले कभी कठपुतली का शो तक नहीं देखा था. सीखने की इच्छा प्रबल हुई तो मैंने 1 महीने तक इनके साथ रहकर अलग-अलग जगहों पर पपेट शो देखें.'

'15 दिनों के अंदर दिखाया पहला कठपुतली शो'
मनमोहन बताते हैं, 'अपने गुरु अलख नारायण जी से मैंने कहा था कि जिस दिन मैंने हाथ में कठपुतली पकड़ी तो उसके 3 महीने बाद मैं आपको अपना बेहतरीन शो दिखलाऊंगा, लेकिन महज 15 दिनों के अंदर ही यह संभव हो गया और मेरे पपेट शो पर भारी संख्या में लोग जुटे. लगभग ढाई घंटे तक मैंने अपना पहला पपेट शो किया. हमने कई ऐसे जगहों पर भी काम किया है, जो आतंकित इलाका था. नक्सलियों का इलाका था या दुर्गम पहाड़ों का इलाका था, लेकिन हम जहां भी गए वहां से ढेर सारा प्यार मिला और पपेट शो देखने के लिए लोगों का उत्साह भी मिला.'

कठपुतलियों को दिखाता पपेटियर्स.
मनमोहन का कहना है कि उस जमाने में हमने 10 पैसे से लेकर 1 रुपये तक का पपेट शो का टिकट रखा. मुझे याद है कि एक बार मैंने किसी से 20 रुपये उधार लिए तब जाकर मैं किसी पपेट शो पर पहुंचा था. वहां पर पपेट देखने के लिए एक रुपये का टिकट लगाया था. उस पपेट शो से मुझे 150 रुपये की आमदनी हुई थी.


मोबाइल ने खत्म किया कठपुतलियों का क्रेज

अलख नारायण कहते हैं कि अब लोगों के बीच कठपुतलियों को लेकर या उनके द्वारा दिए जा रहे संदेशों को लेकर किसी भी तरह का कोई क्रेज नहीं रह गया है. लोगों के पास अब इसे देखने के लिए शायद समय भी नहीं रह गया है, क्योंकि सभी लोग मोबाइल में ही बिजी रहते हैं. वहीं मनमोहन लाल कहते हैं कि हम अब भी कोशिश कर रहे हैं कि हमारी आने वाली भविष्य की पीढ़ी में कठपुतलियों को लेकर कुछ क्रेज बढ़े, इसके लिए हम अलग-अलग स्कूल में जाकर छोटे बच्चों को कठपुतलियों का शो दिखला रहे हैं और उसके बारे में ट्रेनिंग दे रहे हैं.

कठपुतलियां.

मनमोहन लाल कहना है कि उन्हें इस बात की बेहद खुशी है कि बच्चों में कठपुतलियां बहुत मशहूर साबित हो रही हैं और इसी वजह से उन्होंने छोटे बच्चों को इसकी ट्रेनिंग देने की शुरुआत की है. हालांकि छोटे बच्चों से इधर अब कुछ नए युवा भी सामने आ रहे हैं, जो कठपुतलियों के बारे में ट्रेनिंग ले रहे हैं और इसे सीखना चाहते हैं. ऐसी ही एक ट्रेनी पपेटियर दीपमाला यादव हैं.

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कथक के साथ सीख रहीं कठपुतलियों का खेल
दीपमाला यादव बताती है, 'मैं कथक नृत्य की ट्रेनिंग ले रही थी, तब मेरी मुलाकात अलख नारायण जी से हुई और मैंने जाना कि कठपुतलियां कितनी खूबसूरती से अपना संदेश देती हैं. मैंने तय किया कि कथक के साथ में कठपुतलियां भी चलाना सीखूंगी, ताकि लोगों को पता चले कि वे क्या खो रहे हैं.' वह कहती है, 'मैं लगातार पपेट के बारे में हर तरह की ट्रेनिंग ले रही हूं और चाहती हूं कि एक दिन विश्व स्तर पर एक पपेट शो कर सकूं, जिससे लोगों को हमारी संस्कृति से जुड़ी एक बेहतरीन कला के बारे में बताते हुए प्रदर्शन कर सकूं और साथ ही अपनी पहचान खोती इस कला को एक नया आयाम दे सकूं.'

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