लखनऊ: कोरोना काल में कई विभागों के कर्मचारी फ्रंट पर काम कर रहे हैं. वायरस से सीधे मोर्चा ले रहे ये फ्रंट लाइन वर्कर अब सरकारी तानाबाना में उलझ गए हैं. उन्हें खुद के इलाज के पैसों के लिए दफ्तरों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं. इसका सबसे बड़ा कारण 'ग्रुपिंग' में फेरबदल करना है. प्रदेश में कोरोना वायरस फिर से फैल रहा है. इस महामारी से हेल्थ और फ्रंट वर्कर सीधे सामना कर रहे हैं. इसके चलते ये बीमार भी हो रहे हैं. बीमारी पर होने वाला सारा खर्चा इन्हें अपनी जेब से करना पड़ रहा है.
कैशलेस के नाम पर बड़ा धोखा
राज्य कर्मचारी संयुक्त परिषद के महामंत्री अतुल मिश्रा के मुताबिक, सरकार ने कर्मचारियों के इलाज के नाम पर धोखा किया है. साल 2018 में कर्मचारियों के कैशलेस इलाज का दावा किया गया था. इस संबंध में आदेश भी जारी कर दिया गया था, मगर उसका सही तरीके से क्रियान्वयन अभी तक नहीं हुआ है. चिकित्सा प्रतिपूर्ति के लिए मिलने वाले बजट का 75 फीसद कैशलेस के नाम पर वित्त विभाग ट्रांसफर कर देता है. वहीं 25 फीसद बजट ही चिकित्सा प्रतिपूर्ति के लिए शेष रह जाता है . ऐसे में सरकार की पेंचीदा नीतियों में कर्मियों के इलाज के बिल फंसे हैं. यही नहीं बाद में बिलों के वेरीफिकेशन, भुगतान के लिए अस्पताल, सीएमओ दफ्तर, विभाग में चक्कर लगाना पड़ रहा है. ऐसे में करीब 18 लाख कर्मियों की समस्या को नजरंदाज करने पर शासन की कार्यशैली पर सवाल खड़े हो रहे हैं. हजारों कर्मियों के बिल अभी फंसे पड़े हैं.