हैदराबाद: यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव(UP Assembly Election 2022)होने हैं और अभी से ही सभी सियासी पार्टियां जमीनी स्तर पर मतदाताओं को अपने पक्ष में करने को प्रचार-प्रसार में जुट गई हैं. अबकी मुख्य तौर पर मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी के बीच होता दिख रहा है. साथ ही दोनों ही पार्टियों ने सूबे की अन्य बड़ी पार्टियों संग गठबंधन न करने का निर्णय लिया है. यही कारण है कि इन दोनों पार्टियों ने सूबे की छोटी पार्टियों से गठबंधन किया है. बात अगर पूर्वांचल और अवध की करें तो अखिलेश यादव को छोटी पार्टियों में भी ओम प्रकाश राजभर की पार्टी से अधिक उम्मीद है तो भाजपा भी अपना दल और निषाद पार्टी पर सियासी दांव खेले हुए हैं. वहीं, पश्चिम यूपी में समाजवादी पार्टी ने रालोद के साथ गठबंधन कर रखा है, ताकि जाटलैंड में भाजपा की सियासी गणित को बिगाड़ा जा सके.
इधर, 2019 में गठबंधन का कड़वा घूंट पी चुकी बसपा सुप्रीमो मायावती ने इस बार किसी भी पार्टी से गठबंधन न करने की घोषणा की है. लेकिन सियासी हलकों में इस बात की भी चर्चा है कि बसपा की ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम से अंदर खाने बातचीत जारी है. वहीं, अगर बात कांग्रेस की करें तो उसकी स्थिति ऐसी है कि उसके साथ कोई भी पार्टी हाथ मिलाने को तैयार नहीं है और इसके पीछे मुख्य रूप से दो वजह हैं. एक तो कांग्रेस का सूबे में तेजी से जनाधार घटा है तो दूसरा पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजों के कारण भी सभी पार्टियां कांग्रेस से किनारा किए हुए हैं.
लेकिन इन सब के बीच सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तर प्रदेश में गठबंधन की सियासत कभी कामयाब नहीं हुई है. अगर सूबे की सियासी इतिहास पर नजर डालें तो पिछले पांच दशक में यहां कई गठबंधन हुए और टूटे हैं. कुछ गठबंधन चुनाव से पहले हुए तो कुछ गठबंधन को सत्ता में बने रहने के लिए चुनाव के बाद किया गया. लेकिन सच यही है कि उत्तर प्रदेश में अब तक कोई भी सियासी गठबंधन टिकाऊ और मजबूत साबित नहीं हुआ है.
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वहीं, यूपी में गठबंधन का सबसे पहला प्रयोग साल 1967 में हुआ था. अलग-अलग सियासी पार्टियों को साथ लेकर चौधरी चरण सिंह को सरकार बनाने का मौका मिला था. उस सरकार में भारतीय लोक दल, कम्युनिस्ट पार्टी और जनसंघ शामिल हुई थी. लेकिन यह सरकार सालभर भी नहीं चली थी. बाद में 1970 कांग्रेस से अलग हुए कुछ विधायकों ने त्रिभुवन सिंह के नेतृत्व में साझा सरकार बनाया, जिसे जनसंघ का समर्थन प्राप्त था, पर यह भी गठबंधन आखिरकार औंधे मुंह गिरी.इसके बाद साल 1977 में एक बार फिर गठबंधन की गांठ तो बंधी पर ये गठजोड़ भी टिकाऊ साबित नहीं हुआ. हालांकि, आपातकाल के कारण देश में कांग्रेस के प्रति व्याप्त नाराजगी से इस गठबंधन को पहले तो लाभ हुआ, पर इससे जुड़े नेताओं की महत्वाकांक्षाओं ने आगे चलकर इसे धराशाई कर दिया.
यही कारण था कि यूपी में जनसंघ का साथ लेकर जनता पार्टी ने राम नरेश यादव के नेतृत्व में सूबे में सरकार बनाई थी, जो टिकाऊ साबित नहीं हुई. देखते ही देखते अलग-अलग विचारधाराओं को मिलाकर बनी यह गठबंधन कुछ ही दिनों में बिखर गई. इसके उपरांत सूबे में राम मंदिर आंदोलन की आंधी चली और भाजपा को रोकने के लिए मुलायम सिंह यादव और काशीराम साथ आए. उस दौरान एक नारा सुर्खियों में रहा, ''मिले मुलायम-कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम.'' यह गठबंधन चुनाव से पहले हुआ था और मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने थे. लेकिन तभी सूबे की स्थायी सियासत में एक औचक झटके ने सब खत्म करने का काम किया. गेस्ट हाउस कांड के साथ ही 1995 में यह गठबंधन टूट गया था.