हैदराबादः यूपी की सियायस में गठबंधन का अहम स्थान है. माना जाता है जो पार्टी जितनी चतुराई से गठबंधन साध लेती है जीत उसी के पाले में चली जाती है. गठबंधन से बड़ी पार्टियां एक तीर से कई निशाने साधती हैं. हर चुनाव में गठबंधन की गणित बदल जाती है. सीटों की गुणा-भाग से बड़ी पार्टियां तय करतीं हैं कि किसके साथ रहना है और किसे किनारे कर देना है. चलिए आज जानते हैं इसी गठबंधन पॉलिटिक्स के बारे में.
दरअसल, 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी गठबंधन को 325 सीटें मिलीं थीं. बीजेपी ने 384 सीटों पर प्रत्याशी उतारे थे. उसे 312 सीटें मिली थीं. बीजेपी का सुभासपा और अपना दल (एस) से गठबंधन था. अपना दल (एस) को 11 सीटों में नौ और सुहेलदेव समाज पार्टी को आठ में चार सीटों पर जीत मिली थी.
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पिछली बार कांग्रेस और सपा मिलकर चुनाव लड़े थे. इस गठबंधन को महज 54 सीटें ही मिली थीं. सपा को 311 सीटों में 47 और कांग्रेस को 114 में केवल सात सीटों पर ही संतोष करना पड़ा था. बसपा को महज 19 सीटें ही मिली थीं. वहीं रालोद को एक ही सीट पर संतोष करना पड़ा था.
भाजपा का गठबंधन सार
2017 के चुनाव में बीजेपी की प्रमुख सहयोगी रही सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के साथ नहीं है. इसकी वजह है ओमप्रकाश राजभर की नाराजगी. कहा जाता है कि कभी वह डिप्टी सीएम की कुर्सी के दावेदार थे, कुर्सी न मिलने के कारण वह बीजेपी से छिटक गए. हालांकि ओपी राजभर इससे इनकार करते रहे हैं. उनका कहना है कि वह राजभर समाज के हितों की लड़ाई के लिए बीजेपी को छोड़ने पर मजबूर हुए.
2022 के विधानसभा चुनाव में इस बार बीजेपी को निषाद पार्टी का कंधा मिला है. बीजेपी को उम्मीद है कि निषाद समाज के जरिए जरूर बीजेपी की नैय्या पार हो जाएगी. खेवनहार निषाद समाज के वोटों की गणित बीजेपी को काफी भा रही है.
- अपना दल (एस) इस बार भी साथ
2017 के चुनाव में अपना दल एस ने 11 सीटों में नौ सीटें जीतीं थीं. अनुप्रिया पटेल ने इस बार भी बीजेपी पर ही भरोसा जताया है. उन्हें उम्मीद है कि बीजेपी का साथ इस बार भी अपना दल के लिए फायदेमंद साबित होगा.
जुदा हो गईं कांग्रेस और सपा की राहें
2017 के चुनाव में पिछली बार कांग्रेस और सपा मिलकर चुनाव लड़े थे. इस गठबंधन को महज 54 सीटें ही मिली थीं. इस बार दोनों ही पार्टियों ने शुरू से ही अपनी राहें जुदा कर लीं. कांग्रेस इस बार अकेले ही चुनाव लड़ रही है. कांग्रेस ने किसी से कोई भी गठबंधन नहीं किया है. कांग्रेस को उम्मीद है कि राष्ट्रीय़ महासचिव प्रियंका गांधी जरूर इस बार कोई चमत्कार करेंगीं.
2022 में सपा गठबंधन में सबसे आगे
इस बार सपा ने जिस तरह से गठबंधन पॉलिटिक्स पर काम किया है वैसा काम किसी भी पार्टी ने किया है. अखिलेश यादव ने बड़ी ही चतुराई से सुभासपा को भाजपा के पाले से खींचकर अपने पाले में खड़ा करवा लिया. यहीं नहीं अखिलेश यादव ने अपने रूठे चाचा शिवपाल यादव की पार्टी प्रसपा, महान दल और जनवादी पार्टी से गठबंधन कर अपनी मंशा जता दी कि बीजेपी को हराने के लिए वह हर छोटे दल को सपा के साथ ले आएंगे. यही नहीं जाट लैंड यानी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी को कड़ी टक्कर देने के लिए अखिलेश यादव ने रालोद से भी समझौता कर लिया. सपा और आरएलडी अभी तक 49 सीटों पर प्रत्याशी घोषित कर चुके हैं. यहीं नहीं अपना दल कमेरावादी भी सपा के साथ हैं. हालांकि इतने भारी भरकम गठबंधन की सीटों को लेकर अभी तक सभी चीजें स्पष्ट नहीं हो सकीं हैं. फिर भी उम्मीद जताई जा रही है कि जिस गढ़ में जिस दल का प्रत्याशी मजबूत होगा वहां से वहीं प्रत्याशी उतारा जाएगा. अब उम्मीद जताई जा रही है कि चरणवार प्रत्याशी घोषित कर सपा गठबंधन के सीट बंटवारे के पत्ते खोलेगी.
ओवैसी, बाबू सिंह कुशवाहा व मेश्राम का हुआ गठबंधन
एक और गठबंधन का आज ऐलान हो सकता है. असादुदीन ओवैसी, पूर्व मंत्री बाबू सिंह कुशवाहा और वामन मेश्राम के बीच यह गठबंधन तैयार हुआ है जो उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ेगा.
पीस पार्टी के साथ राष्ट्रीय उलमा काउंसिल
पीस पार्टी (Peace Party of India) और राष्ट्रीय उलमा काउंसिल (Rashtriya Ulama Council) ने संयुक्त रूप से अपने उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी है. इस लिस्ट में कुल दस प्रत्याशियों के नामों का एलान किया गया है.
आखिर गठबंधन की मजबूरी क्यों
दरअसल, यूपी जहां जातीय राजनीति को प्राथमिकता दी जाती है वहां हर जाति का एक दल सक्रिय रहता है. इन दलों को बड़ी पार्टियां अपने पाले में लाकर यह संदेश देतीं है कि वे उनके साथ हैं और इस बार उनके लिए कुछ करेंगी. जातीय आधारित दलों की बात की जाए तो इसमें निषाद पार्टी. सुभासपा, अपना दल समेत कई ऐसी पार्टियां हैं जो एक विशेष जाति से जुड़ाव वाली पार्टियां मानी जातीं हैं. बड़े दलों में इन्हीं पार्टियों को अपने पाले में लाने की खींचतान मची रहती हैं. माना जाता है कि इनके साथ गठबंधन से एकमुश्त एक जाति विशेष का वोट मिल जाएगा, जिससे कई सीटों पर पार्टी का प्रदर्शन सुधर जाएगा.
कुछ पुराने गठबंधन भी देख लीजिए
- वर्ष 1989 में पहले जनमोर्चा फिर जनता दल के नाम से गठबंधन बना. यूपी में मुलायम सिंह यादव की अगुवाई में 5 दिसंबर 1989 को जनता दल की सरकार बनी. राम मंदिर आंदोलन के दौरान बीजेपी ने जनता दल से समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम ने कांग्रेस की मदद से अपनी सरकार बचाई थी.
- छह दिसंबर 1992 में अयोध्या में विवादित ढांचा गिराये जाने के बाद केंद्र सरकार ने तत्कालीन कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर दिया. सपा और बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा. बसपा को 164 सीटों में 67 और सपा को 256 में 109 सीटों पर जीत मिली. दोनों दलों ने मुलायम के नेतृत्व में सरकार बनाई. जल्द ही बसपा को अहसास हो गया कि सपा उसकी पार्टी में तोड़फोड़ कर रही है. दो जून 1995 को हुए गेस्टहाउस कांड के बाद बसपा ने सपा से समर्थन वापस ले लिया. सपा की सरकार ढह गई. बीजेपी के सहयोग से मायावती सीएम बनीं.
- 1996 विधानसभा चुनाव में कोई दल बहुमत हासिल नहीं कर सका. तब बीएसपी और बीजेपी ने गठबंधन कर सरकार बनाई. तय हुआ कि छह-छह महीने दोनों का मुख्यमंत्री बनेगा. बसपा से मायावती दूसरी बार मुख्यमंत्री बनीं। बीजेपी भी सरकार में शामिल हुई लेकिन 6 महीने बाद ही ये गठबंधन टूट गया, क्योंकि मायावती ने कल्याण सिंह को सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया.
- 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान सपा-बसपा करीब 24 साल बाद एक साथ आए. ‘महागठबंधन’ तैयार हुआ लेकिन इसकी उम्र ज्यादा नहीं रही. लोकसभा चुनाव में परिणाम मनमुताबिक नहीं मिलने के बाद मायावती ने 4 जून 2019 को गठबंधन तोड़ दिया. इस दौरान मायावती ने स्टेट गेस्ट हाउस कांड का मुकदमा भी वापस ले लिया था. यह फैसला उन्होंने अखिलेश के कहने पर ही लिया था. अब वहीं अखिलेश यादव उनके विधायक तोड़ रहे हैं.
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