हैदराबाद: यूपी में अगले साल विधानसभा चुनाव (UP Assembly Election 2022) होने हैं और सभी सियासी पार्टियां जोर-शोर से प्रचार में लगी हैं. वहीं, सरकार के फैसलों और विकास पर विपक्षी पार्टियों के हमले दिन-ब-दिन तेज होते जा रहे हैं. खैर, इन सियासी हमलों के इतर हम आज सूबे के उस मुख्यमंत्री की बात करेंगे, जिसके लिए हर फैसले को उसकी बहू रातों रात पलट दिया करती थी. लेकिन इस सरल और सहज मुख्यमंत्री को कांग्रेस की आत्मा का रक्षक कहा जाता था. वहीं, एक ऐसा भी वक्त आया जब इसी मुख्यमंत्री ने अपने जीवन के आखिरी दिनों में प्रधानमंत्री राजीव गांधी के खिलाफ जमकर चिट्ठियां लिखी.
इधर, आपातकाल के दौरान जगजीवन राम को लगता था कि इंदिरा गांधी सत्ता छोड़ उन्हें प्रधानमंत्री बना देंगी. लेकिन वरिष्ठ सियासी विश्लेषक व पत्रकार प्रदीप शुक्ला बताते हैं कि तब इंदिरा गांधी के दिमाग में केवल एक ही नाम था चल रहा था और वो था कमलापति त्रिपाठी का. कमलापति उन नेताओं में से थे, जिन्होंने कांग्रेस में अर्श से फर्श तक का सफर तय किया. आज जब आडवाणी मोदी के खिलाफ कुलबुलाते हैं तो यही कहा जाता है कि ये भाजपा के कमलापति त्रिपाठी हैं.
मूल रूप से काशी के वासी कमलापति त्रिपाठी ने शास्त्री और डीलिट की उपाधियां प्राप्त करने के उपरांत 'आज' अखबार से बतौर पत्रकार अपने करियर की शुरुआत की थी. वे हिंदी और संस्कृत दोनों ही भाषाओं के अच्छे जानकार माने जाते थे. खैर, उन दिनों सियासत सबकी हॉबी और प्रोफेशन दोनों हुआ करती थी. गांधीजी ने ऐसा माहौल ही बना रखा था कि जेल जाना और पुलिस से मार खाना तब आम बात हो गई थी. 16 सास की उम्र में असहयोग आंदोलन के दौरान पहली बार कमलापति त्रिपाठी जेल गए थे. धीरे-धीरे यूपी की सियासत में वे बड़े नाम बन गए.
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वहीं, 1937 में चुनाव जीत विधानसभा पहुंचे. ये सिलसिला लंबे समय तक जारी रहा. 1946, 1952, 1957, 1962 और 1969 में भी चुनाव जीत विधानसभा पहुंचे थे. आगे चलकर संविधान सभा के सदस्य चुने गए. उत्तर प्रदेश की सियासत में कमलापति त्रिपाठी का एक अपना गुट था. इनकी बाकी नेताओं जैसे चंद्रभानु गुप्ता और त्रिभुवन नारायण सिंह से बनती नहीं थी. लेकिन सियासत में न तो कोई हमेशा के लिए मित्र होता है और न शत्रु. डॉ. संपूर्णानंद को कमलापति त्रिपाठी और चंद्रभानु गुप्ता की सियासत के चलते ही मुख्यमंत्री की पद से इस्तीफा देना पड़ा था. और नेहरू ने गुप्ता को काबू करने के लिए सुचेता कृपलानी को मुख्यमंत्री बना दिया था.
इसके कुछ समय बाद नेहरू जी की मौत हो गई थी. फिर नये प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की भी मौत हो गई तो कांग्रेस ने जल्दबाजी में इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बना दिया था. इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने का असर उत्तर प्रदेश की सियासत पर पड़ा. राममनोहर लोहिया और चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस के वंशवाद के खिलाफ समाजवाद शुरू कर दिया. मुलायम सिंह यादव भी उसी दौर में विधायक बने थे और फिर इंदिरा की कांग्रेस के पुराने नेताओं से खटपट हो गई.
वहीं, 1970 में त्रिभुवन नारायण सिंह मुख्यमंत्री बनने के बाद उपचुनाव में एक पत्रकार रामकृष्ण द्विवेदी से चुनाव हार गए थे. द्विवेदी इंदिरा के सपोर्ट से थे. कमलापति त्रिपाठी उस वक्त की सियासत की नब्ज पहचानते थे. वो भी इंदिरा के साथ हो लिए और 4 अप्रैल, 1971 को कमलापति त्रिपाठी को सूबे का मुख्यमंत्री बना दिया गया.
लेकिन कमलापति के राज में एक ऐसी चीज हुई जो सिर्फ अंग्रेजों के राज में हुई थी. अंग्रेजों का तो इससे बहुत नहीं बिगड़ा था, पर कमलापति की कुर्सी चली गई. 1946 के नौसेना विद्रोह के बाद दूसरा विद्रोह 1973 में उत्तर प्रदेश का पीएसी का विद्रोह था. नौसेना का विद्रोह तो ब्रिटिश शासन के खिलाफ था, लेकिन आजादी के बाद हुआ पीएसी की 12वीं बटालियन का विद्रोह अपनी ही सरकार के खिलाफ था.
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यूपी में पीएसी एक रिजर्व पुलिस फोर्स के रूप में रहती है. राज्य के महत्वपूर्ण स्थानों पर. डीआईजी से ऊपर लेवल के अधिकारी के ऑर्डर आने पर ही ये मूव करते हैं. यूपी में इनके बारे में फेमस है कि ये बड़ा मारते हैं. क्योंकि इनका कोई लोकल नेता वगैरह से जुड़ाव तो होता नहीं. तो मौका मिलते ही पिटाई शुरू कर देते हैं. इनको मेले, त्योहार, खेल, चुनाव, दंगे वगैरह में बुलाया जाता है. ये लोग सिर्फ लाठी रखते हैं. इनकी कई बटालियन हैं.
मई 1973 में पीएसी की बारहवीं बटालियन ने यूपी में विद्रोह कर दिया. वजह थी खराब सर्विस कंडीशन, गलत अफसरों को चुनना जो कि जवानों पर धाक जमाते थे. बहुत सारे जवानों से घर के काम भी कराए जाते थे. एकदम जानवरों की तरह रखा जाता था. इस विद्रोह के बाद लगा कि पुलिस प्रणाली यूपी में टूट चुका है. मामला हाथ से निकल रहा था. कुछ भी हो सकने की आशंका थी. पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में तानाशाही चल रही थी.