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नगर निगमों को ज्यादा शक्तियां देने का वादा भूली भाजपा सरकार, पहले बनाती थी मुद्दा

प्रदेश में भाजपा सरकार का छठा साल है, वहीं केंद्र सरकार के भी करीब 9 साल पूरे हो चुके हैं. भाजपा पहले जिन मुद्दों को उठाती थी, उन पर भी ध्यान दिया जाना चाहिये. जानिए नगर निगमों को अधिक शक्तियां मिलने का बाद क्या लाभ मिलता. पढ़ें यूपी के ब्यूरो चीफ आलोक त्रिपाठी का विश्लेषण...

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Published : May 5, 2023, 2:00 PM IST

Updated : May 6, 2023, 2:58 PM IST

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लखनऊ :भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री डॉ दिनेश शर्मा जब लखनऊ के मेयर थे, तब वह नगर निगम को ज्यादा अधिकार देने की पैरवी करते थे. अपने भाषणों और सार्वजनिक सभाओं में वह यह मुद्दा उठाना नहीं भूलते थे. मेयर सम्मेलनों में भी डॉ दिनेश शर्मा ने इस विषय को उठाया और नगर निगमों की लाचारी की दुहाई दी. हालांकि जब भारतीय जनता पार्टी सत्ता में आई और वह खुद डिप्टी सीएम बनें तो उन्हें यह मुद्दा याद नहीं रहा. प्रदेश में भाजपा सरकार का छठा साल है. केंद्र में भी भारतीय जनता पार्टी की सरकार नौ साल पूरे कर चुकी है. इसके बावजूद उन मुद्दों की याद आज किसी को नहीं, जिन्हें विपक्ष में रहते हुए वह खुद उठाया करते थे. गौरतलब है कि नगर विकास अधिनियम का 74वां संशोधन लागू करके नगर निगम को शक्तिशाली बनाया जा सकता है. दिल्ली और मुंबई में यह व्यवस्था लागू है. इस व्यवस्था में अग्निशमन विभाग, लोक निर्माण विभाग और विकास प्राधिकरण जैसे बड़े और महत्वपूर्ण विभाग नगर निगम के अधीन काम करते हैं.



इन नगर निगमों को दी गईं तमाम शक्तियां : दरअसल, नगर निगम की शक्तियों को लेकर बहस काफी अरसे से चली आ रही है. नगर निगम को शहरों की सरकार कहा जाता है. देश के दिल्ली और मुंबई आदि महानगरों में ऐसे शक्तिशाली नगर निगम हैं, जहां नगर निगमों को तमाम शक्तियां दी गई हैं. ऐसे शहरों में नगर निगम शहर की व्यवस्था से जुड़े समग्र प्रबंध देखते हैं. उन्हें शहर के विकास या अन्य कार्यों के लिए सरकार अथवा अन्य विभागों का मुंह नहीं देखना पड़ता. डॉ दिनेश शर्मा उत्तर प्रदेश में भी इसी प्रकार की व्यवस्था उत्तर प्रदेश के नगर निगमों के लिए भी चाहते थे. यह बात भी दीगर भी है. जब किसी भी संस्था को एक ही स्थान पर कई निर्णय लेने की व्यवस्था दी जाती है, तो वह अपना काम ज्यादा प्रभावी ढंग से कर पाते हैं. वहीं जब कोई मुद्दा व्यवस्था परिवर्तन की बजाए सिर्फ राजनीतिक लाभ लेने के लिए उठाया जाता है, तो उसका हश्र ऐसा ही होता है, जैसा इस विषय में हुआ. वह पार्टी और उसके नेता जब सत्ता में आए तो खुद वह काम करना भूल गए, जिसके लिए वह लगातार मांगें करते रहते थे. राजनीतिक दलों में अक्सर ऐसा विरोधाभास देखने को मिलता है. जब वह विपक्ष में रहते हैं, तो कुछ कहते हैं और सत्ता में आते ही अपना कहा भूल जाते हैं. इस मामले में सभी दलों का रवैया एक सा ही है.


कम से कम तीन लाख हो जनसंख्या : गौरतलब है कि नगर निगम बनाने के लिए शहर की जनसंख्या कम से कम तीन लाख होनी चाहिए. यह शहरी स्थानीय निकाय से संबंधित इकाई है और इसके अध्यक्ष को मेयर कहा जाता है. मेयर को शहर का प्रथम नागरिक भी कहा जाता है. उत्तर प्रदेश में मेयर को सीधे जनता द्वारा चुना जाता है. नगर निगम के कार्य मुख्य रूप से शहर की साफ सफाई, पेयजल की व्यवस्था, स्वास्थ्य और शिक्षा, सड़कों का निर्माण व मार्ग प्रकाश की व्यवस्था आदि होते हैं. नगर निगम में आयुक्त, कार्यकारी, वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियां नियंत्रित करते हैं.



प्रदेश की राजनीति पर पैनी नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषक डॉ प्रदीप यादव कहते हैं 'शायद राजनीति इसी का नाम है, जहां कथनी और करनी में अंतर साफ दिखाई देता है. यदि नगर निगमों को अधिक शक्तियां मिल जातीं, तो इसका लाभ सबसे अधिक सत्तारूढ़ दल को ही मिलता, क्योंकि वह पिछले पांच साल से प्रदेश के दस नगर निगमों पर काबिज था. सरकार को सुधार करने का अधिक अवसर मिलता और स्वाभाविक है कि यदि जनता को सरकार का काम दिखाई देता तो अंततः वह वोट के रूप में ही बदलता. इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि विपक्ष और सत्ता पक्ष में रहने पर राजनीतिक दलों की प्राथमिकताएं अलग-अलग होती हैं. यह मामला इसका ताजा उदाहरण है. डॉ दिनेश शर्मा दो बार यानी दस साल तक लखनऊ के मेयर रहे और इस विषय को जोर-शोर से उठाते रहे. डिप्टी सीएम बनने पर उन्हें खुद इस विषय में आगे बढ़कर पहल करनी चाहिए थी, पर उन्होंने ऐसा नहीं किया. उम्मीद की जानी चाहिए कि शायद ताजा चुनावों के बाद यह मांग एक बार फिर जोर पकड़े और इस संबंध में सरकार जरूरी कदम उठाए.'

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Last Updated : May 6, 2023, 2:58 PM IST

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