लखनऊ : डॉ. राधाकृष्णन, पं. मदन मोहन मालवीय, आचार्य नरेन्द्र देव जैसे नाम लेते ही कुलपति की एक अलग छवि उभर कर आती है. यह वो नाम हैं जिन्होंने इस पद पर रहते हुए नए कीर्तिमान स्थापित किए. समाज को एक नई दिशा दी. यह हमेशा निर्विवादित चेहरे रहे हैं. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में देखने को मिला है कि कुलपति की नियुक्ति से पहले ही विवाद खड़े हो जाते हैं.
यूजीसी के प्रावधानों को नहीं किया लागू
आरोप लग रहे हैं कि अब नियुक्ति में योग्यता से ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप और पहुंच को तवज्जो मिल रही है. इसी का नतीजा है कि लगातार यह पद और इस पद पर नियुक्ति करने वाले राजभवन पर भी अंगुलियां उठ रही हैं. शायद यही कारण है जिसके चलते अभी तक प्रदेश में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रावधानों को पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है. बता दें कि 2010 में यूजीसी ने कुलपति की नियुक्ति के लिए 10 साल का प्रोफेसर का अनुभव अनिवार्य कर दिया था. देश के कई राज्यों में इसे लागू कर दिया गया. लेकिन, उत्तर प्रदेश में इसे लागू नहीं किया गया है.
सर्च समिति पर ही उठ रहे हैं कई सवाल
लखनऊ विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त प्रो. नर सिंह वर्मा का आरोप है कि कुलपति के चयन की प्रक्रिया में सुधार के दावे तो बहुत किए गए हैं लेकिन, अभी तक यह प्रक्रिया दोषपूर्ण है. कुलपति के चयन के लिए राजभवन के स्तर पर बनने वाली सर्च समिति में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का प्रतिनिधि आज तक शामिल नहीं किया गया. जानकारों की मानें तो यह सर्च समिति पहले चरण में 10 नामों को तैयार करती रही है. कुलाधिपति के रूप में आनंदीबेन पटेल के आने के बाद यह संख्या 15 हो गई है. उसके बाद 5 नामों को कुलाधिपति के सामने रखा जाता है और राज्यपाल के स्तर पर अन्तिम नाम पर मुहर लगाई जाती है.
क्यों नहीं बताते कैसे योग्य है चयनित व्यक्ति