लखनऊ : समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद बिखरा समाजवादी कुनबा फिर एक साथ दिखाई देने लगा है. इस निकटता को देखकर सपा की विचारधारा से निकटता रखने वाले तमाम लोग आशान्वित हैं कि शायद रिश्तों में जमी बर्फ पिघली होगी और अखिलेश और शिवपाल यादव फिर एक होकर समाजवादी पार्टी को मजबूती देंगे. हालांकि इस दावे से पहले यह समझना बहुत जरूरी है कि आखिर दोनों में अलगाव क्यों हुआ? वह कौन से कारण हैं कि अखिलेश यादव और शिवपाल सिंह यादव एक नहीं हो पा रहे हैं.
बात 2012 के विधानसभा चुनावों की है. इस चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के पुत्र अखिलेश यादव युवा चेहरे के रूप में मैदान में दिखाई दिए. उन्हें जनता से भारी समर्थन मिला. जनसभाओं में बड़ी संख्या में युवा अखिलेश पर फिदा दिखाई दिए. चुनाव नतीजे आए तो सपा को भारी बहुमत मिला, जिसके बाद मुलायम सिंह यादव ने जनता की नब्ज भांपते हुए अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया. यह वह दौर था, जब सपा में शिवपाल सिंह यादव, अमर सिंह और मोहम्मद आजम खान का दबदबा माना जाता था. स्वाभाविक है कि अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री भले बना दिया गया हो, लेकिन पार्टी के बड़े और कद्दावर नेता यही चाहते थे कि उनका प्रभाव बना रहे और अहम फैसलों में वह अपनी अहमियत दिखाते रहें. 2015 तक सब कुछ ठीक चला, लेकिन इसके बाद बातें बिगड़नी शुरू हो गईं. अखिलेश सरकार में खनन मंत्री रहे गायत्री प्रजापति पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे. अखिलेश यादव ने गायत्री प्रजापति व एक अन्य मंत्री को बर्खास्त कर दिया. उन्होंने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को भी पद से हटा दिया. बातें यहीं से बिगड़नी शुरू हुईं. गायत्री शिवपाल यादव के करीबी माने जाते थे. इससे शिवपाल नाराज हुए और नेता जी यानी मुलायम सिंह यादव से शिकायत की. इस पर मुलायम ने शिवपाल को अखिलेश यादव की जगह पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया. इसके बाद भी कई वार और पलटवार हुए. अंतत: जो हुआ वह यह कि अखिलेश और शिवपाल के मन में एक-दूसरे को लेकर कटुता चरम पर पहुंच गई. प्रोफेसर रामगोपाल यादव भी शिवपाल को पसंद नहीं करते थे. ऐसे में अखिलेश यादव प्रोफेसर राम गोपाल यादव के और करीब चले गए. स्वाभाविक है कि इससे शिवपाल की डगर और कठिन हो गई.
सपा में सम्मान की लड़ाई हारे शिवपाल सिंह यादव ने 2018 में प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के नाम से अपनी अलग पार्टी बना ली. 2019 के लोक सभा चुनावों में उनकी पार्टी को कोई कामयाबी नहीं मिली. हालांकि वह पूरे प्रदेश में अपना संगठन खड़ा करने में कामयाब रहे. 2022 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर परिवार को जोड़ने की कोशिशों ने रंग दिखाया और शिवपाल सिंह यादव ने सपा के टिकट पर मैनपुरी से चुनाव लड़ने का एलान किया. हालांकि अखिलेश यादव ने प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के किसी भी अन्य नेता को अपनी पार्टी से टिकट देकर समायोजित करना जरूरी नहीं समझा. यही नहीं सपा के बैनर तले चुनाव लड़ने के बावजूद अखिलेश यादव ने शिवपाल को वह सम्मान नहीं दिया, जिसके वह हकदार थे. शिवपाल पूरे चुनाव भर अपमान का घूंट पीकर शांत रहे, लेकिन चुनाव के बाद अखिलेश ने जब विधायक दल की बैठक बुलाई तो उसमें शिवपाल यादव को आमंत्रित नहीं किया. स्वाभाविक है कि अखिलेश यादव के लिए यह अपमान असह था. उन्होंने घोषणा की कि वह आगे से अपनी पार्टी का ही विस्तार करेंगे और भविष्य का चुनाव अपनी पार्टी से ही लड़ेंगे. शिवपाल सिंह यादव एक बार फिर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का संगठन मजबूत करने में जुट गए.
इन तमाम मतभेदों और उतार-चढ़ावों के बावजूद कुछ लोगों को छोड़कर ज्यादातर ऐसे लोग हैं, जो चाहते हैं कि अखिलेश और शिवपाल फिर से एक हो जाएं. इन लोगों की कोशिश भी रहती है कि जहां भी अवसर मिले दोनों को साथ लाया जा सके. मुलायम सिंह यादव के निधन के बाद लगभग 10 दिन से दोनों नेता साथ हैं. स्वाभाविक हैं कि दुख की इस घड़ी में दोनों में घृणा और द्वेष के बादल कुछ तो छंटे ही होंगे. कुछ तो बातें हुईं होंगी. ऐसे में यह कयास लगाना कि दोनों फिर एक हो सकते हैं, बड़ी बात नहीं है. शिवपाल यादव के बेहद खास रहे एक पूर्व मंत्री बताते हैं कि शिवपाल पर उनकी धर्मपत्नी सरला यादव का भी काफी दबाव है. वह बताते हैं कि अखिलेश यादव की मां मालती देवी के निधन के बाद शिवपाल की पत्नी सरला यादव ने ही उन्हें बच्चे की तरह पाला है. वह अखिलेश को बहुत प्यार करती हैं. ऐसे में उनका दबाव रहता है कि किसी भी कीमत पर अखिलेश और शिवपाल में एका हो. वह बताते हैं कि 2022 के चुनाव से पहले सरला यादव ने भोजन त्याग दिया था. इसी हठ के कारण शिवपाल ने अखिलेश का साथ दिया था.