लखनऊ: इस बार बारिश कम होने की वजह से केले समेत तमाम फसलों की खेती करने वाले किसान परेशान हैं. बख्शी का तालाब विकासखंड का इटौंजा क्षेत्र जो केला फल पट्टी के नाम से जाना जाता है, यहां पिछले एक दशक से किसान केले की जी 9 किस्म की लगातार खेती कर रहे हैं. जो किसानों को अन्य केले की फसलों की अपेक्षा ज्यादा मुनाफा दे रही है. लेकिन इसमें लगने वाले कीटों को लेकर किसानों को परेशानी हो रही है. इस समस्या से निपटने के लिए कृषि विशेषज्ञ ने राय दी है कि किसान फसलों में लगने वाले कीटो को कैसे प्रबंधित कर सकते हैं.
केले की खेती मुनाफे का सौदा
केले की खेती को लेकर बख्शी का तालाब विकासखंड के इटौंजा अंतर्गत उद्वतपुर गांव के किसान पवन वर्मा ने बताया कि केले की खेती करने से किसानों को एक साथ लाभ होता है. जिससे किसानों का पैसा सुरक्षित हो जाता है. जिससे इस गांव के लोग केले की खेती को ज्यादा महत्व देते हैं. उन्होंने बताया कि गेहूं, धान या अन्य खेती की अपेक्षा केले की खेती ज्यादा मुनाफे का सौदा होती है क्योंकि अक्सर देखा गया है कि गेहूं का भाव कम ज्यादा होता रहता है, जिससे किसानों को मुनाफा कम होता है. उन्होंने केले की खेती में लगने वाले कीट की समस्या के बारे में भी बताया, जिससे केले की खेती में नुकसान भी देखने को मिलता है. पवन ने बताया कि इस गांव में केले की जी 9 फसल ज्यादा लगाई जाती है.
केले की फसल में कीट से बचाव का तरीका. कीटों की पहचान एवं प्रबंधन का तरीका
केले की फसल में लगने वाले कीटों के संबंध में चंद्रभानु गुप्ता कृषि महाविद्यालय के कृषि विशेषज्ञ एवं कीट विज्ञान विभाग के डॉक्टर सत्येंद्र कुमार सिंह ने बताया कि केले की फसल में सितंबर माह में कीट एवं बीमारियों का अधिक प्रकोप होता है. इसका समय से प्रबंधन कर किसान अधिक लाभ उठा सकते हैं. यह एक ऐसी फसल है जो किसानों की आय बढ़ाने में तथा किसान को आत्मनिर्भर बनाने में सफल हो सकती है. जून माह में जो फसल की रोपाई की गई है उसमें प्रमुख रूप से वनाना जड़ वेधक वीविल और तना वेधक वीविल कीटों का प्रकोप इस समय अधिक होता है. जड़ वेदक वीविल काले रंग की होती है. इनके ऊपर कठोर काला आवरण पाया जाता है. इस कीट के प्रौढ़ में काटने चबाने वाले मुखांग होते हैं. यह कीट केले के नीचे शकर को काटकर नुकसान पहुंचाते हैं. इनके लार्वा सफेद रंग के होते हैं. यह विकसित हो रही केले की जड़ों को अपने मुखांग से काटकर नुकसान पहुंचाते हैं, जड़ों में छेद कर देते हैं, जिससे पौधे धीरे-धीरे कमजोर हो जाते हैं और पीले पड़कर सूख जाते हैं.
सितंबर महीने में बवाना वीविल का समय से करें प्रबंधन
प्रमुख रूप से सितंबर के आखिरी सप्ताह से अक्टूबर माह तक केले पर वनाना तना वीविल कीट का प्रकोप अधिक होता है. वीविल छोटे आकार का काले रंग का होता है. इस कीट के लार्वा अंडों से निकलने के बाद पत्तियों को अपने मुखांग से काटकर नुकसान पहुंचाते हैं. इनके लार्वा केले की ऊपरी सोकि में घुसकर अंदर ही अंदर मुलायम भाग को खाते रहते हैं. गहर निकलने से पहले भीषण प्रकोप हो जाने से बहुत अधिक क्षति हो जाती हैं. कभी-कभी अधिक प्रकोप हो जाने से केले में गहर बिल्कुल नहीं बनती, यह केले का सबसे हानिकारक कीट है. इन दोनों कीटों का समय से समन्वित प्रबंधन करने से फसल को नुकसान होने से बचाया जा सकता है. समय-समय पर केले की बागों में सफाई करते रहना चाहिए. सूखी पत्तियां, डंठल आदि काटकर निकाल देना चाहिए. ब्युबेरिया, बेसियाना, जैविक कीटनाशक की 2 ग्राम मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव कर देना चाहिए. इस जैविक उत्पाद के प्रयोग से कीट के जीवन चक्र की सभी अवस्थाएं नष्ट हो जाती हैं. यह काफी प्रभारी जैविक फफूंदी जनित उत्पाद है जो फसलों के ऊपर अवशेष भी नहीं छोड़ता और वातावरण को प्रदूषित भी नहीं करता. एक बार प्रयोग करने से यह 1 वर्ष तक प्रभावी रहता है.
कीटों पर करें रासायनिक कीटनाशकों का छिड़काव
जब केले के बागों में एक पौधे के ऊपर अधिकतम दो वीविल दिखना प्रारंभ हो जाए तो lambda-cyhalothrin नामक कीटनाशक की 1.5 एमएल मात्रा को 1 लीटर पानी में घोल बनाकर शाम के समय छिड़काव करना चाहिए. यदि केले के पौधे की ऊंचाई 2 या 3 फिट हो गई है उस समय क्लोरोपायरिफास नामक कीटनाशक की 0.5 एवं मात्रा को 1 लीटर पानी की दर से घोल बनाकर उसमें 200ml गाय का मूत्र मिलाकर छिड़काव करने से इन कीटों का सफल प्रबंधन हो जाता है. यह छिड़काव पौधे के ऊपर एवं जड़ों के पास करना चाहिए.
केले की बीमारियां एवं उनका प्रबंधन करें सीमित
केले में सितंबर माह में अधिक तापक्रम एवं आद्रता होने पर उकठा रोग की समस्या अधिक होती है. यह बीमारी फ्यूजेरियम फफूंदी के द्वारा फैलती है. इस बीमारी को पनामा विल्ट भी कहते हैं. इस रोग से पौधे धीरे-धीरे मुरझा कर सूख जाते हैं. पौधों को उखाड़कर चीरने पर देखें तो उसके अंदर भूरे रंग की धारियां दिखाई देती हैं. इस बीमारी से बहुत अधिक नुकसान हो जाता है. इससे जड़ों का विकास बिल्कुल रुक जाता है और पौधा सूख जाता है. यह फंगस केला उत्पादक किसानों के लिए समस्या बना हुआ है. इस बीमारी का समन्वित प्रबंधन करके इसे रोका जा सकता है. इस बीमारी से ग्रसित पौधों को काटकर हटा देना चाहिए और जिस खेत में यह बीमारी लगी है उस खेत का पानी और मिट्टी किसी दूसरे खेत में नहीं जाने देना चाहिए. इस बीमारी से बचने के लिए जैविक फफूंदी नामक ट्राइकोडरमा का प्रयोग करना चाहिए. जड़ों के पास 20 ग्राम ट्राइकोडरमा पाउडर को मिट्टी में सीधे या गोबर की खाद के साथ मिलाकर जमीन में मिला देना चाहिए जिससे इस बीमारी का प्रबंधन हो जाता है. बीमारी का अधिक प्रकोप होने पर कार्बेंडाजिम 50% wp फफूंदी नाशक की 5 ग्राम मात्रा को 200 ग्राम नीम की खली के साथ मिलाकर प्रति पौधा प्रयोग करना चाहिए. इसे अच्छी तरह से केले के जड़ों के पास गुड़ाई करके मिला देना चाहिए. पनामा विल्ट बीमारी से बचाव बहुत जरूरी होता है. इसके लिए सदैव स्वस्थ सकर का प्रयोग करना चाहिए. पौधे की रोपाई के समय जड़ों में किसी प्रकार का कोई भी घाव या खरोंच नहीं होना चाहिए. फसल चक्र अपनाना चाहिए, सदैव टिशू कल्चर विधि द्वारा तैयार पौधे को रोपाई हेतु प्रयोग में लाना चाहिए. जिन खेतों में पनामा बिल्ट की समस्या हो उसमें 2 वर्ष तक केले की फसल नहीं लेनी चाहिए.