लखनऊ: हमारे इतिहास के कई ऐसे अध्याय हैं जिसमें वर्णित आजादी के नायक और नायिकाओं ने अपने शौर्य से इतिहास की धारा बदल दी. कुछ ऐसे भी हैं जिनकी शौर्य गाथाएं अनकही रह गईं. इतिहास गवाह है कि देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने में देश की वीरांगनाओं ने भी पुरुषों की भांति अपने साहस, शौर्य और समर्पण का परिचय दिया और इतिहास के पन्नो में अपनी अमिट छाप छोड़ दी. इनमें से कई ऐसी भी वीरांगनाएं (Women Freedom Fighters) हैं, जिनको इतिहास के पन्नों में वह स्थान तो नहीं मिला जिसकी वह हकदार थे लेकिन उनके समर्पण को भुलाया नहीं जा सकता. हम आपको बताएंगे उत्तर प्रदेश की कुछ ऐसी ही वीरांगनाओं की कहानी जिन्होंने आजादी की लड़ाई में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया और अपने शौर्य से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए.
रानी लक्ष्मी बाई
1857 की क्रांति की नायिका और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नाम महिला वीरांगनाओं में सबसे पहली श्रेणी में आता है. एक ऐसी रानी जिनकी तलवारबाजी और रण कौशल देखकर अंग्रेज दांतों तले उंगली दबा लेते थे. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का जन्म 19 नवम्बर 1828 को काशी में हुआ था. उनके बचपन का नाम मणिकर्णिका था. मात्र 14 साल की कम उम्र में ही उनकी शादी मराठा नरेश गंगाधर राव से हो गई और मणिकर्णिका का नाम लक्ष्मीबाई हो गया. रानी लक्ष्मीबाई बचपन से ही युद्ध कौशल में धनी बेहद ऊर्जावान थीं. पति की मौत के बाद रानी की मुश्किलें बढ़ गईं. अंग्रेजों ने रानी को झांसी खाली करने का आदेश दिया.
18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में भीषण युद्ध हुआ. रानी ने अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर बांधा और अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर दुश्मनों का मुकाबला कर रही थीं. रक्त से लहुलुहान रानी अंग्रेजों से लोहा ले रही थीं. तभी एक अंग्रेज ने लक्ष्मीबाई के सिर पर तलवार से जोरदार प्रहार किया जिससे रानी को गंभीर चोट आई और वह घोड़े से गिर गईं. रानी ने कहा था कि उनका शव अंग्रेजों के हाथ न लगे, इसलिए सैनिकों ने रानी के शव का एक मंदिर में ही अंतिम संस्कार कर दिया. कवयित्री सुभद्र कुमारी चौहान की कविता 'खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी' आज भी बच्चों को पढ़ाई जाती है.
झलकारी बाई
देश को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने में अपने प्राणों की आहूति देने वाली रानी लक्ष्मीबाई की भांति एक और वीरांगना थी. जिन्होंने एक अपने साहस और शौर्य का ऐसा उदाहरण पेश किया जो आज भी कईयों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है. हम बात कर रहे हैं रानी लक्ष्मीबाई की परछाईं बनकर हमेशा उनके साथ रहने वाली झलकारी बाई की. रानी लक्ष्मीबाई से हूबहू मिलने के कारण उन्हें भारत की दूसरी लक्ष्मीबाई भी कहा जाता है. झलकारी का जन्म बुंदेलखंड के भोजला गांव में नवंबर 1830 को एक निर्धन परिवार में हुआ था. झलकारी रानी लक्ष्मी बाई की महिला सेना में शामिल थीं. रानी के अहम निर्णयों पर झलकारी की भी अहम भूमिका रहती.
23 मार्च 1858 को जनरल रूज रोज ने अपनी विशाल सेना के साथ झांसी पर आक्रमण कर दिया. रानी ने अपने सैनिकों के साथ अंग्रेजों से सामना किया. रानी की सेना नायक दूल्हे राव ने लालच वश किले का एक द्वार ब्रिटिश के लिए खोल दिया. हालात बेहद खराब थे रानी को सुरक्षित रखना जरूरी था. तभी झलकारी ने रानी को सुरक्षित निकलने को कहकर रानी जैसे वस्त्र पहने और झांसी की सेना का नेतृत्व करने लगीं. अंग्रेज झलकारी को ही रानी समझ बैठे और झलकारी को पकड़ लिया. अंग्रेजों को लगा रानी उनके हाथ लग गई, लेकिन तब तक रानी अंग्रेजों की पहुंच से काफी दूर निकल गई थीं. जब सच्चाई पता चली तो अंग्रेजों ने झलकारी को फांसी से लटका दिया. 22 जुलाई 2001 में झलकारी के सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था.
बेगम हजरत महल
बेगम हजरत महल का नाम भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम में असीम शौर्य और साहस के साथ अंग्रेजों से टक्कर लेने के लिए दर्ज है. जब अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अंग्रेजों ने गद्दी से बेदखल कर दिया तो उनकी पत्नी बेगम हजरत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी से मुकाबला किया. 1857 में बेगम हजरत महल ने सरफद्दौलाह, महाराज बालकृष्ण, राजा जयलाल और सबसे बढ़कर मम्मू खान जैसे अपने विश्वासपात्र अनुयाइयों के साथ मिलकर सबसे लंबे समय तक अंग्रेजों का मुकाबला किया. अपनी असीम शौर्य और साहस की बदौलत बेगम हजरत महल ने चिनहट और दिलकुशा की लड़ाई में अंग्रेजों की सेना को हराया. इसके बाद 5 जून, 1857 को उन्होंने अपने 11 वर्षीय बेटे बिरजिस कद्र को मुगल सिंहासन के अधीन अवध का ताज पहनाया. जब अंग्रेजों ने अवध पर कब्जा कर लिया तो बेगम अपने बेटे को लेकर नेपाल चली गईं. जहां 7 अप्रैल 1879 को उन्होंने अंतिम सांस ली.