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दर्द से भरा था 'निराला' का जीवन, लेखनी में दिखा असर - हिन्दी साहित्य में निराला का योगदान

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला एक ऐसा नाम है. जिसे हिंदी साहित्य जगत कभी नहीं भूल सकता. उन्होंने अपनी लेखनी से जहां आजादी की लड़ाई में योद्धाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया.

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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की 125वीं जयंती

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Published : Feb 22, 2021, 2:00 AM IST

लखनऊः सूर्यकांत त्रिपाठी निराला एक ऐसा नाम है. जिसे हिंदी साहित्य जगत कभी नहीं भूल सकता. उन्होंने अपनी लेखनी से जहां आजादी की लड़ाई में योद्धाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया. वहीं आजाद भारत में महिलाओं, किसान,दलित और शोषित वर्ग का दर्द भी उभरकर सामने आया. 21 फरवरी को इस महान कवि की 125वीं जयंती है. लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ सूर्यप्रसाद दीक्षित ने इस मौके पर ईटीवी भारत से खास मुलाकात में निराला के जीवन के ऐसे ही कुछ अनकहे पहलुओं पर रोशनी डाली.

निराला की 125वीं जयंती
निराला को पत्नी के देहांत ने बदल दियाडॉ सूर्यप्रसाद दीक्षित बताते हैं कि निराला के पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाडा) के रहने वाले थे. लेकिन वो उस समय बंगाल की महिषादल रियासत (मेदिनीपुर) में सिपाही की नौकरी करते थे. मन्नतों के बाद उनका जन्म हुआ. तो घर में सभी के लाडले थे . इस लड़कपन का नतीजा था कि हाई स्कूल के बाद पढ़ाई ही नहीं कर पाए. 3 साल की अवस्था में माता का और 20 साल का होते होते पिता का देहांत हो गया. पहले विश्वयुद्ध के दौरान पत्नी मनोहरा देवी का भी देहांत हो गया. इस दर्द को वो सह नहीं पाए. कहा जाता है कि वो गंगा के किनारे जहां मनोहरा देवी को दाह संस्कार किया गया वहां निराला घंटों भटका करते थे.

आठ आने में करते थे अनुवाद
डॉक्टर दीक्षित बताते हैं कि उसके बाद के जीवन बेहद संघर्षपूर्ण रहा. पिताजी का निधन हो चुका था. पिताजी के स्थान पर कुछ दिनों राजा के यहां काम करते रहे, लेकिन नहीं टिक पाए. गांव में खेती किसानी बहुत कम थी. इस तरह के काम के लिए वो अभ्यस्त भी नहीं थे. तब उन्होंने लेखन को जीवनी का माध्यम बनाया. उस समय हिंदी का कोई बाजार विशेष नहीं था. उन्होंने आठ आने प्रति पृष्ठ के हिसाब से अनुवाद शुरू किया. क्योंकि बंगला के विशेषज्ञ थे, तो बंकिमचंद, शरदचंद के बंगला उपन्यासों का अनुवाद शुरू किया. टैगोर की रचनाओं का अनुवाद किया. रामचंद्र परमहंस की रचनाओं की व्याख्या की.

संघर्ष में बीता जीवन
डॉक्टर दीक्षित बताते हैं की ये 1930 की बात है. वो लखनऊ आए. यहां सुधा नाम की पत्रिका निकलती थी. वो भार्गव प्रेस से जुड़े. करीब 12 साल काम किया. ये उनके जीवन का सबसे बेहतरीन समय में से था. यहां रहकर उन्होंने रचनाएं शुरू की. जीवन संघर्ष में था और यथास्थिति वाद को स्वीकार नहीं करते थे. इसलिए जीवन काफी मुश्किल भरा रहा. यहां से जब इलाहाबाद गए, तो उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ा. संघर्ष करते-करते वो काफी टूट गए. जहां उन्होंने अपनी लेखनी से समाज पर प्रहार किया. वहीं परिस्थितियों ने उन पर प्रहार किया.

सरकारी सुविधाओं का नहीं करते थे इस्तेमाल
कहा जाता है कि वो सरकार से बेहद नाराज थे. उन्हें हर्निया की शिकायत थी. लेकिन उन्होंने सरकारी अस्पताल में इलाज कराने से भी इंकार कर दिया. कहते हैं कि उन्हें बेहोशी का इंजेक्शन लगाकर अस्पताल ले जाने की कोशिश की गई. लेकिन बीच रास्ते में ही उन्हें होश आ गया और वो तांगे से कूद गए. वो किसी भी सूरत में सरकारी सुविधाओं का इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे.

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