ललितपुर: बुंदेलखंड में फाल्गुन माह में शुरू होने वाले फाग गायन की परंपरा अब ग्रामीण परिवेश में भी सिमटकर रह गई है. पहले फाल्गुन के महीने से शुरू होकर चैत्र महीने की अमावस्या तक इसका गायन चलता था. युवाओं में दिलचस्पी की कमी से इन पारंपरिक गीतों का वजूद लगभग खत्म हो गया है. हालांकि इसे अनरह की होली में गाया जाता है. इसके अलावा रंगपंचमी के मौके पर तो इसे देवालयों में रात भर गाया जाता है.
बता दें कि बुंदेलखंडी परंपरा के मुताबिक किसी परिवार में किसी के स्वर्गवास के बाद पड़ने वाली होली से पहले कोई मांगलिक कार्यक्रम नहीं होता है, होली के बाद चौथे दिन उस घर में इन गीतों को गाया जाता है, जिसके बाद उस घर में मांगलिक कार्यक्रमों की शुरुआत होती है. इसे अनरह की होली कहते हैं.
फाग गायन बुंदेलखंड की संस्कृति से जुड़ा हुआ है. इसमें बुंदेलखंडी शब्दों का इस्तेमाल होने से इसे खूब पसंद किया जाता है. इसका गायन करीब सात दशकों से चला आ रहा है. यह गायन पूर्व में इतना लोकप्रिय रहा कि जब भी किसान फुर्सत में होते इसे गुनगुनाते रहते थे. किसान कभी अपने खेतों पर सुख-दुख के समय भी फागों का गायन करते थे तो कभी आपसी मतभेद भुलाने के लिए फाग गाते थे. कुछ गीतकारों ने इसे अपने भजनों में शामिल किया तो कुछ लोगों ने इसे विभिन्न रागों में गाने का प्रयास किया है. इसका गायन फाल्गुन माह के आते ही शुरू हो जाता था.
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बदलते दौर में फाग अपनी लोकप्रियता को कायम नहीं रख सका. इसकी प्रमुख वजह है कि युवाओं में इसको लेकर दिलचस्पी नहीं है. मौजूदा दौर में बुजुर्ग इसे होलिका अष्टक लगते ही गाना शुरू कर देते हैं. अब इसे सबसे ज्यादातर दुख में गाया जा रहा है. अगर किसी घर में किसी का स्वर्गवास हो जाता है, वहां होली के दौरान फाग गाया जाता है. इसमें दूरदराज के रिश्तेदार भी शामिल होने पहुंचते हैं. इसे ढोल-नगाड़ों की धुन पर घर-घर गाया जाता है, जो रंगपंचमी के एक दिन पहले तक चलता है. रंगपंचमी पर इसे देवी-देवताओं के स्थानों पर गाया जाता है, जो पूरी रात चलता है. इस गायन में जब ढोल बजते हैं तो रात्रि में इसकी गूंज पूरे गांव में सुनाई पड़ती है.
होली के बाद रंगपंचमी तक होते हैं ये कार्यक्रम-