कानपुर देहात : शादी के बाद दुल्हन की मायके से विदाई तो प्रचलित परंपरा है. मगर दूल्हे का घरजमाई बनना आम नहीं है. भारत के कई ट्राइब्स में घरजवांई या घर में दामाद को रखने की परंपरा पुरानी है, मगर हिंदी पट्टी में ऐसा नहीं देखा जाता है. कानपुर देहात का दमादनपुरवा गांव इसमें अपवाद है, जहां पिछले तीन पीढ़ियों से लोग शादी के बाद अपनी बेटी की विदाई नहीं करते हैं बल्कि दामाद को ही एक घर और जमीन देकर घरजंवाई या घरदामाद बना लेते हैं.
यह परंपरा इतनी पक्की हो गई कि गांव का नाम ही बदल गया. पहले कानपुर देहात के सरियापुर गांव का मजरा रहे गांव को पुरवा नाम से जाना जाता था. मगर जब लोगों ने दामादों को बसाना शुरू कर दिया तो पुरवा भी दमादन के पुरवा नाम से प्रसिद्ध हो गया. उत्तर प्रदेश सरकार ने भी गांव के नए नाम को मान्यता दे दी. यानी अब यह गांव आधिकारिक तौर से दामादों का गांव है. ग्राम प्रधान प्रीति श्रीवास्तव इस परंपरा के पीछे की कहानी बताती हैं. प्रीति के अनुसार, सन 1970 में राजरानी की शादी सांवरे कठेरिया से हुई थी. शादी के बाद उन्हें गांव में ही बसा लिया गया. इसके बाद गांव के लोग अपनी बेटी-दामाद को गांव में घर-जमीन देकर बसाने लगे. 2005 में घरजमाई की संख्या 40 हो गई. इन दामादों ने गांव में जमीन भी खरीद ली. धीरे-धीरे सरियापुर गांव का पुरवा दामादन का पुरवा बन गया.
सन 1960 में पहली बार घरजमाई बने राम प्रसाद बताते हैं कि पुरवा दामादन गांव में हर तीसरा घर घरजमाई का ही है. अपने मायके में बसने वाली तारा देवी ने बताया कि जब उन्हें शादी के बाद गांव में बसने का ऑफर दिया गया तो उन्होंने कबूल कर लिया. सभी लोग चाहते हैं कि वह अपनों के बीच रहे, यह उनके लिए अच्छा मौका मिला. उनके पति भी गांव में बसने के लिए तैयार हो गए.