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यहां 13 क्रांतिकारियों को हुई थी फांसी, निशानी के नाम पर है सिर्फ चबूतरा

1857 की क्रान्ति में उत्तर प्रदेश के कानपुर देहात के सबलपुर गांव में अंग्रेजों ने 13 क्रान्तिकारियों को एक नीम के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया था. इन शहीदों के बलिदान के बाद उस जगह पर मात्र एक चबूतरा बना कर खानापूर्ति कर ली गयी है. आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी किसी भी सरकार ने इन शहीदों के परिवार की कोई सुध नहीं ली है.

कानपुर देहात के सबलपुर गांव में 13 क्रान्तिकारियों को हुई थी फांसी.
कानपुर देहात के सबलपुर गांव में 13 क्रान्तिकारियों को हुई थी फांसी.

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Published : Aug 14, 2020, 6:43 AM IST

कानपुर देहात: एक तरफ पूरा देश स्वतंत्रता दिवस की तैयारी में जोर-शोर से जुटा हुआ है, लेकिन दूसरी तरफ देश पर कुर्बान होने वाले शहीदों के स्थलों कोई सुध लेने वाला नहीं है. 1857 की क्रान्ति में जनपद कानपुर देहात के सबलपुर गांव में अंग्रेजों ने 13 क्रान्तिकारियों को एक नीम के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया था. इन शहीदों के बलिदान के बाद उस जगह पर मात्र एक चबूतरा बना कर खानापूर्ति कर ली गयी है. इन बलिदानियों के वंशजों का कहना है कि हमारे पूर्वजों ने देश की आजादी में अहम भूमिका अदा करके अपने प्राणों की बलि दी थी, लेकिन देश की आजादी के इतने साल बीत जाने के बाद भी किसी भी सरकार ने इन शहीदों के परिवार की कोई सुध नहीं ली है. आजादी के 70 साल से ऊपर बीत जाने के बाद अब शहीदों के परिवार को एक साल पहले बिजली मिल पाई है.

कानपुर देहात के सबलपुर गांव में 13 क्रान्तिकारियों को हुई थी फांसी.

13 क्रांतिकारियों को फांसी पर लटकाया था
जब 1857 की जंग का एलान हुआ तो चारों तरफ हाय-तौबा मच गयी थी. एक तरफ अंग्रेजों के चाबुकों की आवाज थी तो दूसरी तरफ आजादी के लिए क्रांतिकारियों का सैलाब थामे नहीं थम रहा था. लोग घरों से निकलकर भारत मां को आजाद कराने का बीड़ा उठा चुके थे. गांव-गांव से क्रांतिकारी जन्म ले रहे थे. यही हाल कानपुर देहात के गांव सबलपुर का भी था, जहां क्रांतिकारी जंग के मैदान में कूद पड़े. जब अग्रेजों को इसकी भनक लगी तो अंग्रेज अफसरों ने 13 क्रांतिकारी उमराव सिंह, देवचंद्र, रत्ना राजपूत, भानू राजपूत, परमू राजपूत, केशवचन्द्र, धर्मा, रमन राठौर, चंदन राजपूत, बलदेव राजपूत, खुमान सिंह, करन सिंह सहित झींझक के बाबू सिंह उर्फ खिलाड़ी नट को नीम के पेड़ से फांसी पर लटका दिया और सभी क्रांतिकारी शहीद हो गए.

शहीदों की शहादत हुई गुम
आज उस जगह का आलम ये है कि शहादत की कहानी गढ़ने वाले नीम के पेड़ की पुरानी पत्तियां झड़ने के बाद वह पेड़ धराशायी भी हो गया. उस पेड़ के साथ ही जिले के जिम्मेदारों के जेहन से उन शहीदों की शहादत भी गुमनाम हो गयी. सालों गुजर गये, लेकिन जिम्मेदारों ने शहीद के परिवारों की सुध तक नहीं ली. आजादी के बाद ग्रामीणों ने उस स्थान पर एक चबूतरा बनवा दिया और शहीद हुए वीरों के लिए एक शहीद स्तम्भ बनवा दिया है. 2003 में तत्कालीन विधायक कमलेश पाठक ने उस स्मारक का सौंदर्यीकरण कराया था. आज भी उन वीरों के नामों से उल्लिखित शिलालेख और वह चबूतरा फांसी पर लटके सपूतों की कहानी बयां कर रहा है.

शहीद की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले
वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा..

कानपुर देहात में ये पंक्तियां अब सिर्फ राष्ट्रीय पर्वों पर गुनगुनाने के लिये ही रह गयी हैं. जिम्मेदारों की अनदेखी में आज उस चबूतरे पर फूल चढ़ाने के सिवा कुछ नहीं रह गया है. अनेकों राष्ट्रीय पर्व गुजर गये, लेकिन यहां पहुंचकर जिले के किसी अधिकारी ने सुध तक नहीं ली कि चबूतरा है भी या नहीं. उस कुर्बानी को ग्रामीण तो राष्ट्रीय पर्वों पर फूल चढ़ाकर और दीप जलाकर याद कर लेते हैं, लेकिन प्रशासनिक अफसरों के लिये यह महज एक स्मारक बनकर रह गया है. स्मारक के सौंदर्यीकरण की बात तो दूर, अधिकारी तो उस परिसर में जाना भी उचित नहीं समझते हैं. मौजूदा समय में वह नीम का पेड़ तो नहीं रहा, लेकिन चबूतरा और शहीद स्तम्भ आज भी शहीदों की शहादत याद दिलाता है, जिसमें बलिदानियों के नाम अंकित हैं. अधिकारियों की अनदेखी में यह वीरानियों के मंजर से गुजर रहा है.

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