कन्नौज: मोक्षदायनी पतित पावनी मां गंगा के तट के किनारे बसा कन्नौज शहर राजा हर्षवर्धन की राजधानी रहा है. कन्नौज अपने गौरवशाली इतिहास के लिए देश भर में जाना जाता है. दुनिया भर में भी कन्नौज अपने इत्र की खुशबू लिए प्रख्यात है. कहा जाता है कि कन्नौज में इत्र नालियों में बहता है. इत्र की खुशबू के लिए मशहूर इस शहर को इत्र की राजधानी भी कहा जाता है. कन्नौज में इत्र बनाने का काम करीब 17वीं शताब्दी से होता चला आ रहा है. यहां पर इत्र पारंपरिक तरीके से बनाए जाने के लिए प्रसिद्ध है. तांबे के बड़े-बड़े भवकों में गुलाब, बेला, चमेली, गेंदा समेत अन्य फूलों का आसवन विधि से सुगंध निकालकर इत्र तैयार किया जाता है. यहां पर इत्र बनाने के करीब 350 से ज्यादा कारखाने मौजूद हैं. कन्नौज का इत्र देश के अलावा गल्फ कंट्री और यूरोप कंट्री में भी सप्लाई किया जाता है. इत्र के व्यापार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से हजारों लोगों को रोजगार मिल रहा है. इत्र कारोबार की वजह से यहां भीनी-भीनी खुशबू हवाओं में महकती रहती है. गुलाब के इत्र के अलावा यहां पर देश का सबसे महंगा इत्र अदरऊद भी बनाया जाता है, जिसकी कीमत करीब 50 लाख रुपए किलो तक होती है.
कन्नौज के इत्र का इतिहास
कन्नौज में इत्र बनाने का इतिहास करीब 17वीं शताब्दी का है. जानकार बताते हैं कि इत्र बनाने का तरीका फारस के कारीगरों से मिला था. इत्र को लेकर एक कहावत प्रचलित है कि 17वीं शताब्दी में जब मुगल सम्राट जहांगीर की बेगम नूरजहां जिस कुंड में स्नान करती थीं, उसमें गुलाब की पंखुड़ियों को तोड़कर डाला जाता था. नूरजहां ने एक बार देखा कि गुलाब की पंखुड़ियां पानी में तेल छोड़ रही हैं. जिसके बाद गुलाब के फूलों से सुंगधित तेल निकालने की कवायद शुरू की गई. जिसके बाद जहांगीर ने भी सुगंध निकालने के लिए शोध को बढ़ावा दिया. यह भी कहा जाता है कि कन्नौज के कुछ लोगों ने पहली बार नूरजहां के लिए फूलों से सुगंधित तेल निकाला था. उस समय से लेकर आज तक इत्र बनाने की विधि में कोई खास बदलाव नहीं आया है. आज भी इत्र के कारखानों में आसवन विधि से तांबे के बड़ी-बड़ी डेगों में इत्र तैयार किया जाता है.
आसवन विधि से तैयार किया जाता है कन्नौज का इत्र
इत्र कारोबारी विवेक नारायन मिश्रा बताते हैं कि शहर का हर तीसरा घर किसी न किसी रूप से इत्र के व्यापार से जुड़ा हुआ है. इत्र बनाने के लिए आज भी आसवन विधि का इस्तेमाल किया जाता है. खेतों से तोड़कर लाए गए फूलों को भट्टियों पर लगे विशालकाय तांबे के भवको (डेग) में डाला जाता है. एक भवके में करीब एक क्विंटल फूल तक आ जाते हैं. फूल डालने के बाद इन भवकों के मुंह पर ढक्कन रखकर मिट्टी से कसकर सील कर दिया जाता है. यह सब प्रक्रिया होन के बाद भट्टियों में आग लगा दी जाती है. कई घंटों तक आग सुलगाने के बाद भवकों से निकलने वाली भाप को एक दूसरे बर्तन में एकत्र किया जाता है. जिसको बाद में सुगंधित इत्र में तब्दील कर दिया जाता है.
मिट्टी से भी निकाला जाता है इत्र
कन्नौज में मिट्टी से भी सुगंध निकाली जाती है. यहां के कुम्हार एक विशेष प्रकार की मिट्टी जिसको चिका मिट्टी कहा बोला जाता है, उससे लोई बनाकर पकाते हैं. जिसके बाद कुम्हार इत्र व्यापारियों को पकी हुई मिट्टी की लोई को बेंच देते हैं. इत्र के कारखानों में पहुंचने के बाद तांबे के बर्तनों में मिट्टी को पकाया जाता है. इसके बाद मिट्टी से निकलने वाली सौंधी खुशबू को बेस ऑयल के साथ मिलाकर इत्र बनाया जाता है. जिसका इस्तेमाल गुटखा और तंबाकू में किया जाता है.