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साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल थीं रानी लक्ष्मीबाई, मरते दम तक अंग्रेजों से लिया था लोहा - रानी लक्ष्मीबाई

18 जून 1858...यह वह तारीख है, जब ग्वालियर में ब्रिटिश सैनिकों से लोहा लेते हुए रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई थीं और झांसी ने अपनी वीरांगना रानी को खो दिया था. ब्रिटिश हुकूमत को धूल चटाने वाली वीरांगना लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर देखिए ईटीवी भारत की यह खास रिपोर्ट...

special report on sacrifice day of veerangana rani laxmibai
रानी लक्ष्मीबाई के बलिदान दिवस पर विशेष रिपोर्ट.

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Published : Jun 18, 2020, 5:23 AM IST

झांसी: अपनी तलवार के दम पर बलिदान और शौर्य की जो कहानी झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने लिखी थी, उस तरह की दूसरी कहानी देश और दुनिया में बहुत मुश्किल से ही ढूंढने से मिलती है. काशी में जन्म लेने वाली छबीली मनु का विवाह झांसी के राजा गंगाधर राव से हुआ, जिसके बाद वे झांसी की रानी लक्ष्मीबाई बनीं. ग्वालियर में ब्रिटिश सैनिकों से लोहा लेते हुए रानी लक्ष्मीबाई 18 जून 1858 को बलिदान हो गईं थीं.

काशी से पहुंची बिठूर
काशी में 19 नवम्बर 1828 को जन्म लेने वाली मणिकर्णिका के पिता मोरोपन्त तांबे और मां भागीरथी बाई थीं. मोरोपन्त तांबे मराठी थे और पेशवा बाजीराव के दरबारी थे. बचपन में ही मनु के सिर से मां का साया उठ गया और पिता मोरोपन्त मनु के साथ बिठूर आ गए. यहां बाजीराव द्वितीय ने मनु का नाम छबीली रख दिया. यहीं छबीली मनु ने तलवारबाजी और पहलवानी के दांव पेंच सीखे.

रानी लक्ष्मीबाई की तस्वीर.

जब रानी पर टूटा दु:खों का पहाड़
बिठूर में रहने के दौरान छबीली का सम्बन्ध झांसी के राजा गंगाधर राव के साथ हुआ. साल 1842 में झांसी के गणेश मंदिर में रानी लक्ष्मीबाई का विवाह राजा गंगाधर राव के साथ हुआ. साल 1851 में रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, लेकिन चार महीने में ही उसकी मौत हो गई. साल 1853 में राजा गंगाधर राव की भी मौत हो गई, जिसके बाद ब्रिटिश सरकार ने झांसी को कब्जे में लेने की योजना बनानी शुरू कर दी.

मरते दम तक अंग्रेजों से लड़ती रहीं रानी लक्ष्मीबाई
ब्रिटिश साजिशों को चुनौती देते हुए रानी लक्ष्मीबाई ने शासन की बागडोर अपने हाथ में लेकर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया. इस बीच धोखे से ब्रिटिश सेना ने झांसी में प्रवेश करते हुए कब्जा जमा लिया. रानी को कालपी कूच करना पड़ा. यहां तात्या टोपे से मुलाकात के बाद उन्होंने ग्वालियर पर हमला कर दिया और विद्रोही सिपाहियों के साथ ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया. ग्वालियर में ही ब्रिटिश फौज से लड़ते हुए 18 जून 1858 को रानी बलिदान हो गईं.

स्पेशल रिपोर्ट...

रानी ने महिलाओं को सेना में दिया स्थान
रानी लक्ष्मीबाई के जीवन चरित्र को याद करते हुए लोग आज भी रोमांचित हो जाते हैं. इतिहास के जानकार डॉ. चित्रगुप्त कहते हैं कि यह वह दौर था, जब महिलाएं घर से बाहर नहीं निकलती थीं. रानी ने तब महिलाओं की पूरी सेना गठित की थी. महिलाओं को तीर, कमान और बंदूक चलाना सिखाया. घुड़सवारी करना सिखाया, उस समय जो जातियां अछूत थीं, उन्हें सेना में शामिल किया.

साम्प्रदायिक सौहार्द की कायम की मिसाल
डॉ. चित्रगुप्त कहते हैं कि उस दौर में पूरे उत्तर भारत में साम्प्रदायिक सौहार्द की कोई बात कर रहा था तो वे रानी लक्ष्मीबाई थीं. अपनी सेना में उन्होंने जितने हिन्दू रखे थे, उतने ही मुस्लिम रखे थे. तोपची, सेनापति से लेकर मुख्य सेविका तक की जिम्मेदारी मुस्लिमों को दी थी. इन सभी लोगों ने रानी लक्ष्मीबाई के लिए अपना बलिदान भी दिया.

रानी लक्ष्मीबाई जब झांसी से कालपी कूच कर रही थीं तो उनका पीछा कर रहे ब्रिटिश सैनिकों को लोहागढ़ में पठान सैनिकों ने रोक लिया था. बड़ी संख्या में पठानों की जान गई थी, लेकिन उन्होंने रानी के सुरक्षित कालपी जाने का रास्ता तैयार कर दिया.

आज भी प्रेरणा देती है रानी की कहानी
रानी लक्ष्मीबाई के जीवन की कहानी आज भी लोगों को प्रेरित और रोमांचित करती है. सामाजिक कार्यकर्ता अपर्णा दुबे कहती हैं कि झांसी का नाम आज पूरी दुनिया में रानी लक्ष्मीबाई के कारण लिया जाता है. झांसी में सभी लोग मिलकर उनके बलिदान दिवस पर याद करते हैं. झांसी की महिलाएं खुद को झांसी की रानी ही समझती हैं. सभी महिलाएं प्रेरणा लेती हैं कि वे रानी की तरह झांसी का नाम रोशन करें.

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