जौनपुर:जलालपुर थाना क्षेत्र में स्थित राजेपुर चौमुहानी पर स्थित रामेश्वर महादेव मंदिर स्थापित है. इस मंदिर का शिव लिंग स्वंयभू है, जिसे बाद में भगवान राम चन्द्र जी ने स्थापित किया था. यहां प्रभु राम के छोटे भाई भरत भी दर्शन करने आए थे, जिसका उल्लेख रामचरितमानस में तुलिसदास द्वारा लिखे श्लोक से मिलता है. 'सई उतर गोमती नहाए, चौथे दिवस अवधपुर आए', मंदिर से सटे सई नदी जिसे सनातन गंगा और गोमती नदी जिसे आदि गंगा कहा जाता है, उनकी संगम स्थान है. ये रामेश्वर मंदिर राजा जनक के गुरु ऋषि अष्ट्रावक्र की तपोभूमि भी है. यहां पर अष्ट्रावक्र ऋषि साधना करते थे.
जलालपुर थाना क्षेत्र के राजेपुर त्रिमुहानी स्थित सूरज घाट, पिलकिछा के बीच भगवान रामेश्वर महादेव का मंदिर स्थापित है. यहां पर सई और गोमती नदी का संगम होता है, जिससे यह स्थान हिन्दू मान्यता के अनुसार और भी पवित्र माना जाता है. भगवान शिवलिंग स्वयंभू है, जिसके दर्शन करने लोग दूर-दूर से आते हैं. मान्यता है कि भगवान राम के वनवास जाने पर उनको मनाकर लौट रहे भरत जी ने यहां संगम में स्नान कर शिवलिंग की पूजा की थी. इसका उल्लेख रामचरित मानस में इस श्लोक 'सई उतर गोमती नहाए, चौथे दिवस अवध पुर आए' से मिलता है.
रामेश्वर महादेव मंदिर बहुत प्राचीन मंदिर है. कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन
इस स्थान पर कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन होता है, जिसमें लाखों की संख्या में लोग शामिल होते हैं. मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा पर संगम में स्नान करने से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है. दर्शन करने आए मनोज विश्वकर्मा ने बताया कि वे लोग यहां बचपन से दर्शन करने आ रहे हैं. यहां स्थापित शिवलिंग स्वंयभू है, जिसे भगवान राम ने स्थापित किया था. इस मंदिर में भरत जी दर्शन करने आए थे, जिनको दर्शन करने के बाद अष्ट्रावक्र ऋषि ने तिल प्रसाद के रूप में दिया था. कार्तिक पूर्णिमा के दिन यहां मेला लगता है. उस दिन सबको तिल प्रसाद के रूप में दिया जाता जाता है.
मंदिर का उल्लेख रामचरितमानस में
साहित्यकार बृजेश यदुवंशी ने बताया कि ये मंदिर बहुत प्राचीन है, जिसका उल्लेख गोश्वामी तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस में भी मिलता है. इसमें तुलसीदास जी ने लिखा है 'सई उतर गोमती नहाए, चौथे दिवस अवधपुर आए' यानि भरत जी ने यहां स्नान कर रामेश्वर महादेव की पूजा अर्चना की थी. बृजेश यदुवंशी ने बताया कि यह महर्षि अष्ट्रावक्र की तपोभूमि है. वो यहां साधना किया करते थे. उन्हें राजा जनक के दरबार में बंदी बने विद्वानों को शास्त्रर्थ में जीत पिता सहित सबकी जान बचाने का कार्य किया था. इसके बाद राजा दशरथ ने भारी सभा में अपना गुरु मानकर पूजा की थी.
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