हाथरस: तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएन शेषन के समय में चुनाव आयोग की सख्ती के बाद से प्रत्याशियों के खर्चे पर लगाम लगी हो या न लगी हो, पर चुनाव का आनन्द धीरे-धीरे खत्म हो गया है. पहले चुनाव की घोषणा होते ही पूरे क्षेत्र में उत्सव का माहौल हो जाता था. जैसे-जैसे मतदान की तिथि नजदीक आती थी, ढोल,नगाड़ों के साथ नारेबाजी का शोर गाजे-बाजे की धुन से गालियां गूंज उठती थी. हर गली मोहल्ले में प्रत्याशी के आने का इंतजार रहता था.
राजनीति से बेखबर उस समय बच्चों का पूरा ध्यान, बिल्ले,झंडी के कलेक्शन पर रहता था. एक-एक बच्चे पर दर्जनों बिल्ले दसियों झंडे अलग-अलग पार्टी के रहते थे. उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता था कि कौन जीतेगा और सरकार किसकी बनेगी. उन्हें तो केवल मतलब रहता था सिर्फ इनके कलेक्शन से. दल और प्रत्याशी अपने वोटों की गिनती पर ध्यान लगाते थे.
वहीं, बच्चे अपने बिल्ले-झंडे की गिनती पर ध्यान रखते थे. चुनाव आयोग की सख्ती से गुंडागर्दी तो खत्म हुई, लेकिन जिन लोगों को चुनाव से अस्थायी रोजगार उस दौरान मिलता था, उनका रोजगार खत्म हो गया. कुछ लोगों को नारे लगाने के पैसे मिलते थे तो कुछ को दोनों समय का भोजन भी मिलता था. गाड़ियों में जो लोग प्रत्याशी के साथ रात- दिन लगे रहते थे, जिन्हें प्रत्याशी की हार-जीत से कोई मतलब नहीं रहता था, उन्हें तो सिर्फ दोनों टाइम का लंगर दिखता था.