गोरखपुर: राकेश त्रिपाठी बांसगांव तहसील के मऊ खुर्द गांव के रहने वाले हैं. वह सहायक अध्यापक हैं और पिछले चार साल से महराजगंज के परतावल ब्लॉक के प्राथमिक विद्यालय कतरारी में तैनात हैं.
बचपन में तबियत बिगड़ने पर इलाज के अभाव में चली गई थी आंखों की रोशनी
राकेश त्रिपाठी बताते हैं कि उनके पिता लालता प्रसाद त्रिपाठी एक किसान हैं. उनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी. चार भाइयों में वह सबसे छोटे हैं. उन्होंने बताया कि वह जन्म से दृष्टिबाधित नहीं हैं. दो-ढाई साल की उम्र में किसी बीमारी से ग्रसित होने पर इलाज के अभाव में उनकी दोनों आंखोंं की रोशनी चली गई. तीनों बड़े भाई इन दिनों गुजरात में रह कर फल का करोबार करते हैं और वहीं रहते भी हैं.
पिता लालता प्रसाद अपने पैतृक गांव में ही रहते हैं. उनकी माता इस दुनिया में नहीं रहीं. राकेश पत्नी और एक बच्ची के साथ चरगांवा ब्लॉक के सताब्दीपुरम कॉलोनी में रहते हैं.
बचपन से याददाश्त रही है तेज
राकेश त्रिपाठी की बचपन से यादाश्त बहुत तेज थी. उन्होंने प्रारम्भिक शिक्षा राजकीय दृष्टिबाधित विद्यालय गोरखपुर में ग्रहण की. पहली कोशिश में मैट्रिक पास किया तो उनका नाम पेपर में छपा. वहीं से उनके मन में पढ़ाई के प्रति लगाव बढ़ा, लेकिन किसी कारणवश उनको स्कूल छोड़ना पड़ा. सीबीएससी बोर्ड से उन्होंने प्राइवेट कंडिडेट के रूप में इंटर पास किया. हायर एजुकेशन के लिए राजधानी दिल्ली का रुख किया तो उनके सामने आर्थिक स्थिति आड़े आने लगी. इसके बावजूद भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी.
ट्रेन में कैलेंडर और ताला-चाभी बेच कर पूरी की पढ़ाई
दृष्टिबाधित दिव्यांग बताते हैं कि बीए करने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में नामांकन के बाद उनके सामने जीविका चलाने की समस्या खड़ी हो गई. लोगों के डोनेशन से फीस तो भरी गई, लेकिन कमरे का किराया तथा जीविका चलाने के लाले पड़ गए. उन्होंने अपनी जरूरतों की आपूर्ति के लिए दिल्ली के ट्रेनों में ताला-चाभी और कैलेंडर आदि भी बेचा.