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कावड़ियों की भगवा पोशाक और झोला तैयार करते हैं गोरखपुर के मुस्लिम परिवार - गोरखपुर में सामाजिक सद्भाव

गोरखपुर में धर्म संगम और सामाजिक सद्भाव देखने को मिल रहा है. यहां कांवड़ियों के पोशाक मुस्लिम समाज के लोग तैयार करते हैं. इतना ही नहीं वो कहते हैं कि उनके बनाए कपड़े पहनकर लोग अपनी मन्नत मांगने बाबाधाम जाते हैं. यही उनके लिए सबसे बड़ा मेहनताना है.

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कांवड़ियों के भगवा पोशाक सिलते हुए मुस्लिम परिवार

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Published : Jul 27, 2022, 4:06 PM IST

गोरखपुर: सावन के महीने में देश भर से कांवड़िए जल चढ़ाने शिव मंदिर जाते हैं. इस दौरान कांवड़िए एक विशेष पोशाक में दिखते हैं. खास बात यह है कि इन पोशाकों का निर्माण गोरखपुर में मुस्लिम समाज के लोग करते हैं. इससे यहां धर्म का संगम और सामाजिक सद्भाव दिखता है. गोरखपुर में भारी तादात में मुस्लिम समाज के लोग कांवड़ियों के पोशाक सिलते हैं. यह करीब 20 वर्षों से चला आ रहा है.


गोरखपुर में मुस्लिम समाज के लोग सावन में कांवड़ियों के लिए कपड़े और झोला तैयार करते हैं. यहां शहर के पिपरापुर, रसूलपुर, जफर कालोनी और इलाहीबाग के कई परिवार सालों से इस काम को करते चले आ रहे हैं. उनकी रोजी-रोटी का जरिया भी यही है. इससे उन्‍हें तीन से चार लाख की इनकम होती है. जो सावन के पवित्र माह के शुरू होने के तीन से चार महीने पहले से ही कांवड़ियों के कपड़े और झोला सिलना शुरू कर देते हैं.

कांवड़ियों के भगवा पोशाक तैयार करते हुए मुस्लिम परिवार

सावन के महीने में बाबाधाम के लिए गेरुआ रंग में रंगे कांवड़िए जब एक साथ निकलते हैं तो हर जगह माहौल शिवमय हो जाता है. जिसमें इन मुस्लिम परिवारों की मेहनत और लगन भी शामिल होती है. कांवड़ियों के पोशाक तैयार करने में कोई भेदभाव नहीं होता है और यह सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश करता है. यह लोग खुद कहते हैं कि समाज का काम एक-दूसरे से मिलकर ही होता है. फिर उसमें कैसा भेद और कैसा जातिवाद.

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बता दें कि यहां से सिले कपड़े और झोले सिर्फ गोरखपुर ही नहीं, बल्कि आसपास के दूसरे जिलों और बिहार भी भेजे जाते हैं. घर पर ही सभी सदस्य मिलकर इस काम को करते हैं. ऐसे में इनकी अच्‍छी आमदनी हो जाती है. हालांकि पिछले दो-तीन साल इनके लिए काफी भारी गुजरे, क्योंकि कोविड की वजह से बाबा धाम जाने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बेहद कम हो गई थी. इस वजह से उनका काम पूरी तरह से ठप हो गया था. हालांकि स्थिति सामान्य होने के बाद से एक बार फिर गेरुए कपड़े और झोला की डिमांड बढ़ गई है.

वो बताते हैं कि पहले इस इलाके में हथकरघा का काम होता रहा है. मशीनों के आ जाने से हथकरघा छूटा तो सिलाई मशीन का सहारा मिला. इस काम को करने वाले कारीगरों को इस बात की खुशी है कि उनके सिले कपड़े और झोले लेकर लोग अपनी मुरादों को पूरा करने के लिए बाबधाम जाते हैं. उनके लिए यही इनका सबसे बड़ा मेहनताना होता है.

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