गोरखपुरः 'यदि देशहित मरना पड़े मुझे सहस्रों बार भी, तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी. हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो'. भारत मां के सपूत, क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत पंडित राम प्रसाद बिस्मिल (Pandit Ram Prasad Bismil) के द्वारा रचित यह लाइनें गोरखपुर के जेल की दीवारों पर आज भी उनके शौर्य, बलिदान और तेज को बयां करती हैं. देश को आजादी दिलाने के लिए उनके मन के अंदर उठने वाली ज्वाला और भाव को प्रदर्शित करती हैं. 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल (Gorakhpur Jail) में पंडित बिस्मिल को फांसी दी गई थी. उन्होंने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते चूम लिया था. उनकी शहादत पर पूरा देश आज उन्हें नमन करता है.
इतिहास के प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मी शंकर मिश्रा ने बताया कि काकोरी ट्रेन एक्शन(Kakori Train Action) के महानायक पंडित बिस्मिल एक गंभीर शायर भी थे. इसलिए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ अपने इन विचारों के जरिए भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी. समय-समय पर इसके माध्यम से आजादी को लेकर वह न केवल अपने जज्बात जाहिर करते रहे, बल्कि उससे क्रांतिकारियों में जोश भी भरते रहे. यह जंग उन्होंने फांसी की सजा घोषित होने के बाद भी जारी रखी. जेल की कोठरी में उन्होंने ऐसे बहुत से शेर लिखे थे, जो क्रांतिकारी योजनाओं का आधार बन गए. फांसी के पहले उन्होंने गोरखपुर जेल के कोठी नंबर 7 में 123 दिन गुजारे. इस कोठरी को उन्होंने साधना कक्ष के रूप में प्रयोग किया. जिसके बारे में उन्होंने लिखा था कि उनकी इच्छा थी एक न एक दिन किसी साधु की गुफा पर कुछ दिन निवास और योगाभ्यास किया जाए. साधु की गुफा तो नहीं मिली, लेकिन साधना गुफा उन्हें मिल ही गई.