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बिस्मिल की शहादत और क्रांतिकारी विचारों की गवाह है गोरखपुर जेल, हंसते-हंसते चूमा था फांसी का फंदा

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Published : Dec 19, 2022, 11:55 AM IST

काकोरी ट्रेन एक्शन(Kakori Train Action) के महानायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई थी. उन्होंने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते चूम लिया था. उनकी शहादत पर पूरा देश आज उन्हें नमन करता है.

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महानायक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

गोरखपुर जेल में फांसी के फंदे पर हंसते-हंसते झूले थे पंडित रामप्रसाद बिस्मिल

गोरखपुरः 'यदि देशहित मरना पड़े मुझे सहस्रों बार भी, तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊं कभी. हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो, कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो'. भारत मां के सपूत, क्रांतिकारियों के प्रेरणा स्रोत पंडित राम प्रसाद बिस्मिल (Pandit Ram Prasad Bismil) के द्वारा रचित यह लाइनें गोरखपुर के जेल की दीवारों पर आज भी उनके शौर्य, बलिदान और तेज को बयां करती हैं. देश को आजादी दिलाने के लिए उनके मन के अंदर उठने वाली ज्वाला और भाव को प्रदर्शित करती हैं. 19 दिसंबर 1927 को गोरखपुर जेल (Gorakhpur Jail) में पंडित बिस्मिल को फांसी दी गई थी. उन्होंने फांसी के फंदे को हंसते-हंसते चूम लिया था. उनकी शहादत पर पूरा देश आज उन्हें नमन करता है.

गोरखपुर जेल

इतिहास के प्रोफेसर डॉ. लक्ष्मी शंकर मिश्रा ने बताया कि काकोरी ट्रेन एक्शन(Kakori Train Action) के महानायक पंडित बिस्मिल एक गंभीर शायर भी थे. इसलिए उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ अपने इन विचारों के जरिए भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई छेड़ रखी थी. समय-समय पर इसके माध्यम से आजादी को लेकर वह न केवल अपने जज्बात जाहिर करते रहे, बल्कि उससे क्रांतिकारियों में जोश भी भरते रहे. यह जंग उन्होंने फांसी की सजा घोषित होने के बाद भी जारी रखी. जेल की कोठरी में उन्होंने ऐसे बहुत से शेर लिखे थे, जो क्रांतिकारी योजनाओं का आधार बन गए. फांसी के पहले उन्होंने गोरखपुर जेल के कोठी नंबर 7 में 123 दिन गुजारे. इस कोठरी को उन्होंने साधना कक्ष के रूप में प्रयोग किया. जिसके बारे में उन्होंने लिखा था कि उनकी इच्छा थी एक न एक दिन किसी साधु की गुफा पर कुछ दिन निवास और योगाभ्यास किया जाए. साधु की गुफा तो नहीं मिली, लेकिन साधना गुफा उन्हें मिल ही गई.

बिस्मिल लिखते हैं कि बहुत कठिनाई से उन्हें अवसर प्राप्त हुआ था. जेल में उनके पास लिखने-पढ़ने की कोई सामग्री नहीं थी. इसलिए उन्होंने अपने जज्बात को शेर के जरिए कोठरी की दीवार पर नाखून से ही उकेरना प्रारंभ कर दिया था. हालांकि फांसी के बाद उनकी मूल लिखावट तो अंग्रेजों ने मिटा दी, लेकिन उनके लिखित शेर लोगों के दिलों दिमाग से वह नहीं मिटा सके, जो आज भी जेल के उस हिस्से की दीवारों पर देखे जा सकते हैं जहां बिस्मिल को देश की स्वाधीनता के लिए फांसी के फंदे पर झूलना पड़ा था.

जेल में उनके वह दो शेर भी एक पत्थर पर लिखित हैं, जिसे उन्होंने फांसी से पहले लिखे अपने अंतिम पत्र में इस जोश भरे वाक्य के साथ लिखा था कि, 'मुझे विश्वास है कि मेरी आत्मा मातृभूमि और उसकी दीन संपत्ति के लिए उत्साह और ओज के साथ काम करने के लिए शीघ्र फिर लौट आएगी'. अखिल भारतीय क्रांतिकारी संघर्ष मोर्चा के संयोजक बृजेश राम त्रिपाठी कहते हैं कि बिस्मिल की शहादत को सम्मान देने की कड़ी में राप्ती नदी के तट पर उनकी प्रतिमा स्थापित करके शहादत स्थली तैयार करने की है, जहां उन्हें अंतिम विदाई दी गई थी. इसका प्रयास चल रहा है.

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