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गोरखपुर: विलुप्त होने की कगार पर है देसी मछलियों का अस्तित्व

उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में निचले भूभाग में पलने वाली देसी मछलियां विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई हैं. जिसके बाद देसी मछलियों से जुड़े मल्लाह समुदाय के सामने रोजगार का खतरा मंडराने लगा है. अगर समय रहते शासन प्रशासन ने ध्यान नहीं दिया तो मछलियों का अस्तित्व ही विलुप्त हो जाएगा.

मछलियों का अस्तित्व खतरे में

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Published : Jul 27, 2019, 12:17 PM IST

गोरखपुर: जिले में मछुआरों की आबादी अच्छी खासी है. एक दौर था जब यहां के लोगों की आजीविका मछली पालन पर ही निर्भर थी, इसके बावजूद भी देसी मछलियों का वजूद खतरे में है. खेतों में प्रयोग किए जाने वाले रसायन उर्वरक कीटनाशक, खरपतवार की वजह से देसी मछलियां विलुप्त होने की कगार पर है. अगर समय रहते शासन-प्रशासन ने इस ओर ध्यान नहीं दिया तो मछलियों का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा. तालाबों में मछलियों की सफाई हेतु हानिकारक रसायनों के प्रयोग को बैन किया जाए, ताकि देसी मछलियों को विलुप्त होने से बचाया जा सके.

विलुप्त होती मछलियों की जानकारी देते मछुआरे.
बिना खर्च के देसी मछलियों का होता है प्रजनन:

देसी मछली को बिना लागत आमदनी का बड़ा स्त्रोत माना जाता है. विकसित नस्ल की मछलियों की तुलना में इसका स्वाद लजीज होता है. देसी मछलियां बरसात के मौसम में अधिक विकसित तथा प्राकृतिक आहार से पलती बढ़ती हैं. इनके ऊपर किसी तरह की जमापूंजी खर्च नहीं होता है. मछलियों की प्रजातियां जैसे रईया, कवैय, चेलवा, बरारी, मोई, सिधरी, मांगुर, इचना, पोठी, ढलवा, गिरई, टेंगरा, गैंची, वामी, सौरी, पटैहिया आदि तालाबों में पानी रहने से मछलियां जल्दी विकसित होती हैं. इनके पालन पोषण पर किसी तरह का खर्च भी उठाना नहीं पड़ता है. प्रत्येक वर्ष इन मछलियों का शिकार लोग जाल बिछाकर, बांस से बनी झीमर और पंपसेट से करते हैं.

कई परिवारों का होता था भरण-पोषण:
मछुआरे समुदाय के साथ ही गरीब तबके के लोग तालाब पोखरा से देसी मछली का शिकार कर अपना एवं अपने परिवार का भरण पोषण करते थे, जो उनके आजीविका का एक मुख्य श्रोत था. लेकिन कम बारिश सहित अन्य कारणों से देसी मछलियां विलुप्त हो रही हैं. अब देसी मछलियों की कमी से इससे जुड़े लोगों ने दूसरे व्यवसाय की ओर रुख कर लिया हैं, जो नहीं जुड़े हैं उनके सामने रोजगार का संकट बरकरार है.

नई प्रजातियां देसी मछलियों का बना रही हैं आहार:
वर्तमान समय में गहरे और उथले जलाशय में भी नए किस्म की मछलियों का पालन होने लगा है. उन्नत प्रभेद की बड़ी-बड़ी मछलियां देसी मछली को आहार के रूप में निगल जा रही हैं. इससे भी देसी मछलियों की कमी हो रही है. जबकि देसी मछली के रख-रखाव या उसके पौष्टिक आहार के ऊपर खर्च न के बराबर होता है.

विशेषज्ञ ने दी जानकारी:
कृषक अधिक उत्पादन प्राप्त करने की होड़ में अपने खेतों में अंधाधुंध रसायनिक खादों, कीटनाशी, खरपतवार नासी आदि दावाओं का प्रयोग बे झिझक कर रहे है. उर्वरक से उत्पादित अनाज फल फूल सब्जियां आदि में रसायनों का असर भी आ गया है. जो मानव स्वास्थ्य के साथ साथ पशु पक्षियों मछलियों आदि के लिए भी खतरनाक साबित हो रहा हैं. कृषि में प्रयोग किए जाने वाले रसायन उर्वरक कीट नाशी खरपतवार नाशी रासायन बारिश के पानी के साथ बहकर रिसकर तालाब एवं निचले भू भागों में पहुंच जाते हैं. जहां देसी मछलियों का प्राकृतिक आवास है. यह हानिकारक रसायन तालाब के पानी को जहरीला कर देते हैं जिसके कारण मछलियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और उनकी मृत्यु भी हो जाती है.
-डॉ. विवेक प्रताप सिंह, पशुपालन विशेषज्ञ

ग्रामीण क्षेत्रों में तालाब पोखरा आदि का शासन द्वारा पट्टाधारकों को आवंटित कर दिया जाता है. पूर्व पट्टाधारक तालाब एवं पोखरा छोड़ने से पुर्व महुआ की खली या जहरीले रासायन का छिड़काव कर पूरी मछलियों को मौत के घाट उतार देते है.
-राजनाथ सिंह,मछुआरा

नए आवंटिया तालाब और पोखरे की सफाई करने के लिए जहरीली रासायन का छिड़काव कर देते हैं. जिसके कारण नए प्रभेद की मछलियों के साथ-साथ देसी प्रभेद की मछलियां दम तोड़ देती हैं. उसके साथ ही प्राकृतिक रूप से उत्पन्न जलीय जीव को भी नुकसान पहुंचता है, जिसे मछलियां प्राकृतिक भोजन के रूप में ग्रहण करती हैं.
-रामनरेश सिंह, ग्रामीण

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