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नागपंचमी पर्व सापों के प्रति सम्मान, संवर्धन और संरक्षण की देता है प्रेरणा

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Published : Jul 25, 2020, 11:58 PM IST

शनिवार यानि 25 जुलाई को नागपंचमी का पर्व है. इस दिन उत्तराफाल्गुनी और हस्त नक्षत्र होने से चन्द्रमा की स्थिति कन्या राशि में है. परिगणित और शिव नामक योग होने से नाग पूजन के लिए अच्छा दिन है. इस दिन व्रत का भी विधान है. जिसका माहात्म्य शास्त्रों में मिलता है.

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गोरखपुर: शनिवार 25 जुलाई को नागपंचमी का पर्व है. इस दिन उत्तराफाल्गुनी और हस्त नक्षत्र होने से चन्द्रमा की स्थिति कन्या राशि में है. परिगणित और शिव नामक योग होने से नाग पूजन के लिए अच्छा दिन है. इस दिन व्रत का भी विधान है. जिसका माहात्म्य शास्त्रों में मिलता है.

गोरखपुर के विद्वान ज्योतिषी शरद चंद मिश्र का कहना है कि ऐसा जन विश्वास है कि नागपंचमी के दिन नाग देवता का पूजन करने से वह प्रसन्न हो जाते हैं और आशीर्वाद देकर भक्तों की मनोकामनाएं पूर्ण करते हैं. इस प्रकार उनके कृपापात्र बन जाने से भक्त के सात पीढ़ी तक सर्पदंश का भय नहीं रहता है.

हमारे पुराणों में अनादिकाल से ही देवताओं के साथ नागों के अस्तित्व के प्रमाण हैं. पुराणों में नागों के सम्बन्ध में बहुतायात सामग्री उपलब्ध है. यहां तक कि नागों के संसार को नागलोक की संज्ञा दी गयी है. पुराणों में वर्णित है कि समुद्र मंथन के महान कार्य में नागराज वासुकि ने अपना शरीर रस्सी के रूप में समर्पित किया था. देवताओं की माता अदिति की सगी बहन कद्रू के पुत्र होने से नाग, देवताओं के छोटे भाई के समान हैं

पंडित मिश्र कहते हैं कि हमारी पृथ्वी का भार शेषनाग के फन के ऊपर है. ये शास्त्रों में भी वर्णित है. भगवान विष्णु ने नागों को अपनी शैय्या बनाकर विश्व कल्याण का कार्य पूरा किया है. भगवान शंकर के गले में अनेकों विषधर नाग सदा उनके शरीर की शोभा बढ़ाते हैं. इसलिए वह 'नागेन्द्र हाराय' कहलाते हैंं.

नागपंचमी के आरम्भिक इतिहास के बारे में श्रीवाराह पुराण में लिखा है सृजन शक्ति के अधिष्ठाता ब्रह्मा जी ने शेषनाग को अलंकृत किया और समस्त मानवों ने उनके इस कार्य की प्रशंसा की. कहा जाता है कि तभी से इस पर्व को इस जाति के प्रति श्रद्धा प्रदर्शित करने का प्रतीक मान लिया गया है. यजुर्वेद में भी नागों के पूजन का उल्लेख मिलता है. इस व्रत का माहात्म्य पढ़ने और सुनने मात्र से भी समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं.

व्रत और पूजन का विधान

इस व्रत के एक दिन पूर्व यानि चतुर्थी को एक समय भोजन कर पंचमी तिथि को एक समय उपवास या फलाहार का नियम है. गरूड़पुराण के अनुसार व्रती अपने घर के दोनों ओर नागों को चित्रित करके उनकी विधि पूर्वक पूजा करें. कुछ स्थानों पर लोग रस्सी की सात गांठ लगाकर उसे सर्प का आकार देकर उसकी पूजा करते हैं.

चूंकि ज्योतिष शास्त्र के अनुसार पंचमी तिथि के स्वामी नाग हैं. इसलिए भक्ति भाव के साथ गन्ध, पुष्प ,धुप ,कच्चा दूध ,खीर ,भीगा हुआ बाजरा और घी से पूजन करें. सुगन्धित पुष्प और दूध सर्पों को अति प्रिय होने से इस दिन लावा और दूध अर्पण किया जाता है. इस दिन सपेरों और ब्राह्मणों को भी लड्डू और दक्षिणा दान करें. अन्न, वस्त्र और फल भी निर्धनों को दें. ब्राह्मणों को दूध से निर्मित खीर और मिष्ठान्न खिलायें. इस दिन सूर्यास्त के बाद भूमि का खनन का निषेध है.

सावन मास की पंचमी तिथि पर मनाये जाने वाले इस नागपंचमी पर्व से सम्बन्धित एक लोक कथा प्रचलित है. कहते हैं कि एक गांव में एक किसान अपने पुत्र और पुत्री के साथ आनन्दपूर्वक रहता था. एक दिन जब वह अपना खेत जोत रहा था तो एक सर्पिणी के तीन बच्चे हल के नीचे कुचल कर मर गये. सर्पिणी ने बदला लेने के लिए किसान और उसके पुत्र को रात में डस लिया. सुबह जब किसान की पुत्री ने देखा कि भाई और पिता को सर्पिणी ने डस लिया, तो वह सर्पिणी के लिए दूध से भरा कटोरा लेकर आयी और उस सर्पिणी से अपने पिता के अपराध के लिए क्षमा मांगने लगी. इससे सर्पिणी का क्रोध प्रेम में बदल गया. उसने प्रसन्न होकर उसके पिता और भाई का जहर वापस खींचकर उन्हे जीवित कर दिया.

उस दिन श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी थी. बस उसी दिन से नाग पूजा की परम्परा चल पड़ी. नागों का देवत्व स्वरूप का वर्णन अनेक ग्रन्थों में है. नागों का मूलस्थान पाताल लोक प्रसिद्ध है. संस्कृत कथा साहित्य में विशेष रूप से-"कथा सरित सागर -"नागलोक और वहां के निवासियों से ओतप्रोत है. गरूड़पुराण, भविष्य पुराण, चरक संहिता, सुश्रुत संहिता, भावप्रकाश आदि ग्रन्थों में नाग सम्बन्धी विविध विषयों का उल्लेख है. योग सिद्धि के लिए जो कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत की जाती है, उसको सर्पिणी कहा जाता है.

पुराणों में भगवान सूर्य के रथ में द्वादश नागों का उल्लेख है. जो क्रमशः प्रत्येक माह में उनके रथ के वाहक बनते हैं. इस प्रकार अन्य देवताओं ने भी नागों को धारण किया है. कश्मीर के जाने माने संस्कृत कवि कल्हण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक-' राजतरंगिणी 'में कश्मीर की सम्पूर्ण भूमि को नागों का अवदान माना है. वहां के प्रसिद्ध नगर अनन्तनाग का नामकरण इसका ऐतिहासिक प्रमाण है.

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