गोरखपुर:मधुमेह रोग मरीज के आंखों की रोशनी छीन सकता है. यह सुनकर और पढ़कर आप शायद हैरान हो रहे होंगे. लेकिन, ऐसा हो सकता है. यह गोरखपुर एम्स में हुए शोध से निष्कर्ष निकला है. मधुमेह से होने वाली आंखों की बीमारी को 'डायबिटिक रेटिनोपैथी' कहा जाता है जो आंखों को प्रभावित करती है. यह आंखों में मौजूद ब्लड वैसेल्स का नुकसान का कारण होता है. यह विशेष रूप से आंख की रेटिना में मौजूद होता है. मधुमेह के रोगियों में आंखों की बढ़ती समस्या को देखते हुए एम्स के नेत्र विभाग के डॉक्टरों की टीम ने यहां आने वाले मरीजों को आधार बनाकर इस शोध कार्य को आगे बढ़ाया तो यह चौकाने वाले परिणाम सामने आए हैं.
एम्स के नेत्र विभाग में जो शोध किया गया इसके अध्ययन का उद्देश्य, नेत्र विज्ञान विभाग में आने वाले मधुमेह रोगियों में 'डायबिटिक रेटिनोपैथी' के बारे में जागरूकता का आंकलन करना था. अध्ययन के लिए कुल 272 रोगियों ने अपनी भागीदारी दी. इस अध्ययन में 44 प्रतिशत लोगों को पता था कि आंखों की जांच वर्ष में कम से कम एक बार (सालाना या हर 6 महीने में) की जानी चाहिए. लेकिन, अभी भी 38.2 प्रतिशत मरीज ऐसे थे, जिन्होंने दृष्टि कम होने पर ही स्क्रीनिंग के बारे में सोचा और 11 प्रतिशत ने कोई जांच नहीं कराई.
इसका मतलब यह था कि मधुमेह रोगियों को इस बात की जानकारी नहीं होती है कि उन्हें कितनी बार आंखों की जांच करानी चाहिए. मधुमेह के रोगियों तक पहुंचने वाले प्राथमिक चिकित्सक इसी के विशेषज्ञ होते हैं. जबकि, एम्स के डॉक्टरों को लगभग 47 प्रतिशत लोगों में इसकी जानकारी उनके इलाज करने वाले डॉक्टरों/चिकित्सकों से मिली. यहां की गई जांच में अधिकांश प्रतिभागी सर्वेक्षण के दिन नियमित आंखों की जांच या कुछ दृश्य समस्याओं के लिए आए थे. केवल 17.6 प्रतिशत प्रतिभागियों को उनके चिकित्सक द्वारा डायबिटिक रेटिनोपैथी स्क्रीनिंग के लिए नेत्र रोग विशेषज्ञों के पास भेजा गया था. इस शोध को फॅमिली मेडिसिन और प्राइमरी केयर जर्नल ने भी प्रकाशित किया है.
इस अध्ययन के शोधकर्ता और नेत्र चिकित्सक डॉ. अलका त्रिपाठी ने बताया है कि प्राथमिक देखभाल करने वाले चिकित्सकों की यह जिम्मेदारी है कि वह मरीजों को स्क्रीनिंग के बारे में सलाह दें और फॉलोअप में उनके अनुपालन की भी तलाश करें. प्राथमिक चिकित्सकों को सभी डायबिटीज के मरीजों को कम से कम साल में एक बार नेत्र परीक्षण के लिए प्रेरित करना चाहिए. नेत्र विभाग की चिकित्सक डॉ संगीता अग्रवाल ने बताया कि शुरुआती लक्षणों में धुंधलापन, आंखों के सामने अंधेरा छाना, फ्लोटर्स, रंगों को समझने में भेद न कर पाना, इसके अलावा गंभीर समस्या में दृष्टिहीनता शामिल है.
नेत्र विभाग की ही चिकित्सक डॉ रिचा अग्रवाल ने बताया कि जिनमें समस्या बहुत गंभीर नहीं होती, उनका इलाज डायबिटीज को मैनेज करके किया जाता है. जबकि, गंभीर मामलों में लेजर उपचार या सर्जरी की आवश्यकता पड़ सकती है. सामुदायिक चिकित्सा और पारिवारिक चिकित्सा विभाग के डॉ प्रदीप खरया ने बताया कि सामान्य तौर पर डायबिटीज से ग्रस्त लोगों में डायबेटिक रेटिनोपैथी तभी विकसित होता है, जब उनको डायबिटीज हुए कम से कम 10 साल हो चुके होते हैं. लेकिन, आंखों की जांच कराने के लिए इतने लंबे समय प्रतीक्षा करना समझदारी की बात नहीं होगी. इसके लिए समुदाय में जागरूकता की बहुत जरुरत हैं.
एम्स की कार्यकारी निदेशिका प्रोफेसर डॉ सुरेखा किशोर के अनुसार, डायबिटीज और इसके सम्बंधित खतरे समय के साथ बढ़ते जा रहे हैं. डायबेटिक रेटिनोपैथी जल्द ही एक प्रमुख विश्वव्यापी स्वास्थ्य संकट बन सकता है. मधुमेह के कारण होने वाली दृष्टि विकलांगता को कम करने के लिए डायबेटिक रेटिनोपैथी के बारे में जागरूकता पैदा करने और समुदाय के बीच रेटिनल स्क्रीनिंग के महत्व की तत्काल आवश्यकता है. एम्स के नेत्र विभाग में इसकी जांचों की समुचित व्यवस्था हैं. इसलिए ज्यादा से ज्यादा मधुमेह रोगी अपनी निरंतर नेत्र जांच करवाएं. अंतर्राष्ट्रीय मधुमेह महासंघ, मधुमेह एटलस-2019 संस्करण के अनुसार, 352 मिलियन मधुमेह लोगों में तीन चौथाई लोग कामकाजी उम्र 20 से 64 साल के हैं. यह संख्या 2030 तक बढ़कर 417 मिलियन और 2045 तक 486 मिलियन होने की उम्मीद है. ऐसे में जागरूकता बचाव के लिए बेहद जरूरी है.
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