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इनके पास रहने को पक्के मकान नहीं, दूसरों के घरों की खुशियों का ऐसे रखते हैं खयाल - gorakhpur news in hindi

भारत में व्रत-त्योहारों के दौरान बांस से बनी चीजों का प्रयोग होता आ रहा है. छठ पर्व आते इनकी मांग बढ़ जाती है. बांस से बनी चीजों को बनाने वाले बांस कारीगरों पर देखिए ईटीवी भारत की खास पेशकश.

छठ पर्व में डलिया का महत्व.

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Published : Oct 30, 2019, 6:59 PM IST

Updated : Oct 30, 2019, 11:51 PM IST

गोरखपुर:दीपावली और भैया दूज के बाद अब छठ पर्व की पूजा में हिंदू समाज जुट गया है. बिहार और पूर्वांचल में विशेष महत्व के इस पर्व का असर पूरे देश में हो चुका है, तो वहीं इस पर्व में पूजा की विभिन्न सामग्रियों का भी बड़ा महत्व होता है. ऐसे में 'डलिया' नाम की एक ऐसी सामग्री की मांग भी व्रती महिलाओं द्वारा बढ़ जाने से इसे बनाने वाले बंसीधर, धरिकार और डोम समाज के लिए खुशियां लाती हैं.

बांस से बनाई जाने वाली 'डलिया' को यह लोग बड़े पैमाने पर बनाते हैं और व्रत रखने वाले लोग इनके हाथों से खरीदना शुभ मानते है. यह वही डलिया होती है, जिसमें छठ पूजा की सभी सामग्री रखकर व्रती महिलाएं और उनके परिजन अपने सिर पर लेकर छठ घाट तक जाते हैं. देखिए उसी बांस के ऊपर बनी ईटीवी भारत की खास रिपोर्ट.

छठ पर्व में डलिया का महत्व.
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जीवन के हर संस्कार में प्रयोग होता बांस

हिंदू संस्कारों में जीवन के हर शुभ-अशुभ कार्यों में बांस का प्रयोग होता है. 16 संस्कारों में बांस का प्रयोग किसी न किसी रूप में किया जाता है. इसी प्रकार संस्कारों के अलावा व्रत-त्योहारों में भी बांस से बनी वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है. प्रसिद्ध त्योहार 'छठ' में बांस से बनी दो वस्तुओं का खास महत्व होता है. इन वस्तुओं के नाम डलिया और सूप हैं. इन दोनों के बिना छठ पर्व अधूरा है. व्रती महिलाएं 'डलिया' और 'सूप' का प्रयोग पूरे व्रत के दौरान करती हैं. जहां डलिया में व्रती महिलाएं फल-फूल और छठ पूजा की वस्तुओं को घाट तक ले जाती हैं. वहीं 'सूप' का प्रयोग सूर्य को अर्घ देने में प्रयोग होता है.

डलिया का है खास महत्व
छठ पर्व 2 नंवबर को शुरू होकर 3 नवंबर को भगवान भास्कर को अर्घ्य देने के साथ पूर्ण होगा, लेकिन इसका व्रत रखने वाली महिलाएं कुल 4 दिनों तक विभिन्न तरह की पूजा-पाठ और तैयारियां करती हैं, जिसकी शुरुआत 31 अक्टूबर को नहाय-खाय के साथ शुरू होगी. इस दौरान कई तरह के पकवान बनाए जाते हैं. बाजार में बिकने वाली हर तरह की फल-सब्जी को भी भगवान भास्कर के प्रसाद के रूप में महिलाएं इकट्ठा करती हैं.

डलिया बाजार में अधिकतम 150 रुपये में मिलती है. इसी डलिया में सब सामानों को रखकर अपने सिर के ऊपर लेकर व्रती महिलाएं या फिर उनके घर के सदस्य छठ घाट की तरफ सूर्य को अर्घ्य देने के लिए जाते हैं. सूर्य उपासना और पुत्र प्राप्ति के इस व्रत में समाज के बंसीधर, धरीकार और डोम समाज का बड़ा और शुभ योगदान होता है जो डलिया और सूप बनाते हैं.


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खानाबदोश की जिंदगी जीते हैं बांस कारीगर
बंसीधर, धरिकार और डोम समाज वो समाज है, जिसके हाथों से इस डलिया का निर्माण होता है. यही समाज पूजा में प्रयोग आने वाली सूप आदि का भी निर्माण करता है, जो बांस से बनाया जाता है. हर शुभ-अशुभ कार्यों में बांस से बनाई गई चीजों का प्रयोग होता है. इसे बनाने वाले कोई और नहीं इसी समाज के लोग होते हैं, जो अक्सर खानाबदोश की तरह और सड़कों के किनारे अपना अस्थाई अड्डा बनाकर जीवन गुजर-बसर करते नजर आते हैं. गोरखपुर में भी यह सड़कों के किनारे ही अपना जीवन यापन करते हैं और रोजगार चलाते हैं.

खास बात यह है कि यह जिस समाज, बिरादरी से ताल्लुक रखते हैं और इनका जो रहन-सहन होता है, उससे आम दिनों में लोग इनसे दूरी बनाकर रहना चाहते हैं. जीवन और मरण के कार्य में सबसे पहले प्रयोग में आने वाली वस्तु का निर्माण इनके हाथों होता है, तो लोग ऐसे अवसरों पर इनके पास भागे चले आते हैं. ये लोग अपनी इसी जिंदगी में खुश हैं और लोगों के सुख दुख के भागीदार बनते हैं, जिससे चार पैसे भी कमाते हैं.

Last Updated : Oct 30, 2019, 11:51 PM IST

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